सूक्ष्म से मिलनेवाले ज्ञान में अथवा नाडीपट्टिका में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ‘संत’ न करते हुए ‘विष्णु का अंशावतार’ होने के विविध कारण !
‘साधकों को सूक्ष्म से मिलनेवाले ज्ञान में मेरा उल्लेख ‘संत’ न करते हुए कई बार ‘विष्णु का अंशावतार’ ऐसा किया गया है । सप्तर्षि जीवनाडीपट्टी का वाचन करते समय पू. डॉ. ॐ उलग्नाथन्जी मेरा उल्लेख ‘विष्णु का अवतार’ इस प्रकार करते हैं । उन्होंने साधकों को मुझे ‘सच्चिदानंद परब्रह्म परात्पर गुरु डॉ. आठवले’ संबोधित करने के लिए कहा है । उसके आगे दिए गए कारण आज मेरे ध्यान में आए ।
१. संत अपने शिष्यों को अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार एक ही साधना सिखाते हैं । सनातन संप्रदाय नहीं है । यहां प्रत्येक को उसकी आध्यात्मिक स्थिति अनुसार विविध साधना सिखाई जाती है ।
२. संत ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग में से किसी योगमार्गानुसार सिखाते हैं, जबकि सनातन में ‘व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने ही साधनामार्ग’ इस सिद्धांत के अनुसार विविध साधकों को विविध साधना सिखाई जाती है ।
३. मैं प्रत्येक को विविध साधना बताता हूं, परंतु वह ‘गुरु’ के रूप में नहीं । जैसे डॉक्टर विविध रोगियों को विविध औषधियां देता है, उसी प्रकार मैं भी विविध साधनाएं बताता हूं ।
४. सनातन में सभी को एक ही गुरुमंत्र नहीं दिया जाता, अपितु प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार उसे मंत्र (नामजप) बताया जाता है, उदा. आध्यात्मिक कष्ट के निवारण के लिए आवश्यक उस देवता का जप, प्राणशक्ति कम होने पर उसे बढाने के लिए आवश्यक जप अथवा कुंडलिनीचक्र में कहीं बाधा हो तो दूर करने के लिए आवश्यक जप बताया जाता है ।
५. मैं स्वयं को अपने गुरु का ‘शिष्य’ समझता हूं । मैं साधकों की ओर ‘शिष्य’ के रूप में नहीं देखता, अपितु ‘साधक’ के रूप में देखता हूं । इसलिए मेरे मन में कभी ऐसा विचार नहीं आता कि ‘मैंने गुरुमंत्र दिया ।’ इसलिए साधकों के मन में मेरे प्रति ‘गुरु’ ऐसा विचार नहीं आता, अपितु ‘मार्गदर्शक’ ऐसा विचार आता है ।
६. ‘केवल साधना बताने की अपेक्षा उसके पीछे का कारण, शास्त्र इत्यादि बताने पर साधक उसे मन से करेगा’, ऐसा मेरा विश्वास होने से मैं उस संदर्भ में साधकों से बोलता हूं । अध्यात्म की केवल सैद्धांतिक जानकारी साधकों को नहीं देता ।
७. अन्य संप्रदायों में उनके द्वारा बताई साधना करते समय उस साधक को कुछ न कुछ बंधन पालने पडते हैं; परंतु सनातन में साधना करते समय साधना के अतिरिक्त अन्य कोई भी बंधन नहीं बताए जाते ।
८. अन्य संत अपने शिष्यों को आशीर्वाद देते हैं । मैंने कभी भी किसी को आशीर्वाद नहीं दिया; कारण मेरा ऐसा भाव होता है कि ‘मैं कुछ भी नहीं करता, ‘सब कुछ ईश्वर ही करते हैं ।’ (११.५.२०२२)
संदीप आळशी, सनातन के ग्रंथों के मुख्य संकलनकर्ता, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
१. आध्यात्मिक परिभाषा में कहना हो, तो अनेक संत या गुरु का आध्यात्मिक स्तर लगभग ७० प्रतिशत होता है । उसके आगे सद्गुरु (आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत) एवं परात्पर गुरु (आध्यात्मिक स्तर ९० प्रतिशत) ऐसे चरण हैं । परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी का वर्तमान में आध्यात्मिक स्तर ९५ प्रतिशत से भी अधिक होने से वे सतत आनंदावस्था में एवं अधिक काल तक निर्गुणावस्था में होते हैं । सनातन के ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधकों को साक्षात् ईश्वर सूक्ष्म से ज्ञान देता है एवं नाडीपट्टिका वाचन के माध्यम से सनातन को उच्च लोकों के महर्षि ज्ञान देते हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की इतनी उच्च आध्यात्मिक अवस्था होते हुए ईश्वर अथवा महर्षि उन्हें ‘संत’ अथवा ‘गुरु’ कैसे संबोधित करेंगे ? ऐसा करना अर्थात परात्पर गुरु डॉक्टरजी की आध्यात्मिक स्थिति का अवमूल्यन करने समान है । इसलिए ईश्वर अथवा महर्षि वैसे नहीं करते ।
२. अनेक संत अथवा गुरु की साधना मूलतः ईश्वरप्राप्ति करने के उद्देश्य से आरंभ हुई होती है । आगे वे एक चरण तक समष्टि कल्याण का कार्य भी करते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने वर्ष १९८७ में ‘अध्यात्मशास्त्र’ ग्रंथ लिखा । तब वे विशेष साधना नहीं करते थे और उन्हें गुरुप्राप्ति भी नहीं हुई थी । तब भी उस ग्रंथ के अंत में उन्होंने प्रार्थना की थी, ‘दुःखी बनें जिज्ञासु । जिज्ञासु बनें मुमुक्षु । मुमुक्षु बनें साधक । और साधक प्राप्त करें मोक्ष ।।’ उस समय वे अध्यात्म के अभ्यासवर्ग भी लेते थे जिससे समाज अध्यात्म समझे और साधना आरंभ करे । समष्टि कल्याण की अत्यधिक आंतरिक लगन भगवान के अवतार में ही हो सकती है । संक्षेप में, परात्पर गुरु डॉक्टरजी में जन्म से ही ईश्वरीय अवतारत्व का बीज था एवं गुरुप्राप्ति के उपरांत बीज का रूपांतर वृक्ष में हो गया । इसलिए ईश्वर अथवा महर्षि परात्पर गुरु डॉक्टरजी को ‘विष्णु का अवतार’ संबोधित करते हैं । (वर्ष २०१५ में हुए सप्तर्षि जीवनाडी-पट्टिका वाचन में महर्षि ने घोषित किया है कि ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं श्रीविष्णु के अवतार हैं ।’)
३. ‘ज्ञानम् इच्छेत् सदाशिवात् । मोक्षम् इच्छेत् जनार्दनात् ।।’, ऐसा कहा गया है । इसका अर्थ है कि ‘शिव से ज्ञान की और विष्णु से मोक्ष की इच्छा करें ।’ अनेक संत या गुरु के हाथों की उंगलियों पर गिने जा सकें, इतने ही सत्शिष्य होते हैं और उनमें से अत्यंत ही अल्प संतपद के अधिकारी होते हैं । इसके विपरीत परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मार्गदर्शनानुसार साधना कर एवं उनकी कृपा से १.५.२०२२ तक सनातन के १२१ साधक संत बन गए और १ सहस्र १२१ साधक संत बनने के मार्ग पर हैं । ये सभी साधक अब जीवन्मुक्त हो गए हैं । संक्षेप में, परात्पर गुरु डॉक्टर मोक्षगुरु ही हैं । केवल ईश्वरीय अवतार में ही इतने लोगों को अत्यंत अल्प कालावधि में जीवन्मुक्त करने की क्षमता होती है ।
४. आज तक कोई भी संत अथवा गुरु के हाथों ‘धर्मसंस्थापना एवं धर्मराज्य (ईश्वरीय राज्य) की स्थापना’ का नहीं हुआ है । केवल श्रीराम एवं श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु के अवतारों से ही यह कार्य हुआ है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का उद्घोष किया है । धर्म के अधिष्ठान पर ही यह राष्ट्र खडा होगा । इसके लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ग्रंथलेखन, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की स्थापना आदि माध्यमों से धर्मप्रसार का कार्य एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए अध्यात्मिक स्तर पर मार्गदर्शन का कार्य कर रहे हैं । नाडीपट्टिका वाचन के माध्यम से महर्षि द्वारा बताए अनुसार ‘धर्मसंस्थापना एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना’, यह कार्य परात्पर गुरु डॉक्टरजी के हाथों से होगा । इसीलिए ईश्वर अथवा महर्षि उन्हें ‘विष्णु का अवतार’ संबोधित करते हैं ।
५. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के कारण ही कलियुगांतर्गत एक छोटे नए सत्ययुग का आरंभ होनेवाला है । इसीलिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी युगपुरुष हैं ! युगपरिवर्तन का कार्य केवल भगवान का अवतार ही कर सकता है । इसीलिए महर्षि उन्हें ‘अवतार’ संबोधित करते हैं । (१२.५.२०२२)
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था का विवेचन एवं अध्यात्मशास्त्रीय आधार !
१. सनातन के सूक्ष्म ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधकों को सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ‘संत’ न करते हुए ‘श्रीविष्णु का अवतार’ करने का कार्यकारणभाव : जगत को अध्यात्म की जानकारी न होने से उन्हें ऐसा लगता है कि ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी केवल संत हैं ।’ इसके विपरीत सूक्ष्म ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधक उन्हें मिलनेवाले ज्ञान से एवं सप्तर्षि नाडीपट्टिका के माध्यम से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ‘श्रीविष्णु का अंशावतार’, इस प्रकार करते हैं । सूक्ष्म ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधक एवं सप्तर्षियों को ईश्वरीय प्रेरणा से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का दिव्यत्व ध्यान में आया है । इसलिए वे उनका उल्लेख ‘श्रीविष्णु का अवतार’ इस प्रकार करते हैं । कलियुग के जीवों को धर्म एवं अध्यात्म का महत्त्व ध्यान में आने के लिए श्रीविष्णु ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के रूप में पृथ्वी पर मानवी स्वरूप में ज्ञानावतार लिया है । इस अवतार की महिमा जगत को ध्यान में आए, इसलिए सूक्ष्म ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधक एवं सप्तर्षि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ‘अवतार’ के रूप में करते हैं और संपूर्ण जगत को उनकी अवतारी गुणविशेषताओं से अवगत कराते हैं । इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अवतारत्व, दिव्यत्व एवं उनकी आध्यात्मिक गुणविशेषताएं संपूर्ण जगत की समझ में आने से पृथ्वी के अनेक जीव परात्पर गुरुदेवजी की ओर आकर्षित होते हैं और उनका सान्निध्य एवं मार्गदर्शन प्राप्त होने से अनेक जीवों को धर्माचरण एवं साधना करने की प्रेरणा मिलती है । इस प्रकार पृथ्वी के समस्त जीवों का आध्यात्मिक स्तर पर उद्धार होने के लिए सूक्ष्म ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का उल्लेख ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ‘संत’ ऐसा न करते हुए ‘अवतार’ इस प्रकार करते हैं ।
२. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा अद्वैतावस्था में ईश्वर से एकरूपता अनुभव करना : परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जब अद्वैत में होते हैं, तब वे श्रीविष्णु से एकरूप हुए होते हैं । इसलिए उन्हें स्वयं के अस्तित्व का भान नहीं रहता, अपितु केवल ईश्वर का ही अस्तित्व निरंतर प्रतीत होता है । ईश्वरीय तत्त्व की अनुभूति लेनेवाले आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत पुरुषों को अपनी स्वयं की स्थिति का विस्मरण हो चुका होता है । इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जैसे संत पूर्ण रूप से भूल चुके होते हैं कि वे ‘परात्पर गुरु’ हैं ।
२ आ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का द्वैतावस्था में शिष्यभाव अनुभव करना : जब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वैत में आते हैं, तब उन्हें अपने गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी का स्मरण होता है और वे शिष्यभाव में होते हैं । इसलिए उन्हें अपने परात्पर गुरुपद का विस्मरण हो जाता है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के द्वैतभाव में शुद्ध अहं कार्यरत होने से उनमें स्वयं के प.पू. भक्तराज महाराजजी के शिष्य होने की भावना प्रबल होती है, जबकि शुद्ध सात्त्विक अहं का लोप होने पर प्राप्त होनेवाली निर्गुण अवस्था में ईश्वर से अद्वैत हो जाने से स्वयं का पूर्ण रूप से विस्मरण हो जाता है । इन दोनों कारणों से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं को गुरु नहीं समझते । इससे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की उच्चतम अहंशून्य अवस्था किस प्रकार की है, इसकी प्रतीति होती है ।’
– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (११.५.२०२२)