परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी

‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि काल महिमा के अनुसार वह निश्चित ही होगा; परंतु इस कार्य में जो तन- मन-धन का त्याग करके सम्मिलित होगा, उसकी साधना होगी और वह जन्म मृत्यु के फेरे से मुक्त होगा !’

आध्यात्मिक क्षेत्र के लेखन का महत्त्व !

‘राजनीतिक क्षेत्र के सभी कार्यकर्ताओं का विषय माया संबंधी होता है, इसलिए उनका लेखन अधिक समय तक नहीं रहता । इसके विपरीत आध्यात्मिक क्षेत्र का लेखन लंबे समय तक अथवा युगों-युगों तक रहता है, उदा. वेद, उपनिषद, पुराण इत्यादि ।’

‘सर्वधर्म समभाव’ कहना, अज्ञान की उच्चतम सीमा है !

‘सभी धर्मों का अध्ययन किए बिना संसार में केवल हिन्दू ही सर्वधर्म समभाव कहते हैं । अन्य किसी भी धर्म का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता । हिन्दुओं को यह ध्यान में नहीं आता कि ‘सर्वधर्म समभाव’ कहना, अज्ञान की उच्चतम सीमा है, यह ‘प्रकाश और अंधकार एक समान है’, ऐसा कहने जैसा है !’

स्वराज्य कभी सुराज्य नहीं होता !

‘स्वराज्य कभी सुराज्य नहीं होता; क्योंकि रज-तम प्रधान लोगों का स्वराज्य कभी सुराज्य नहीं हो सकता । भारत ने यह स्वतंत्रता से लेकर अब तक के ७४ वर्षों में अनुभव किया है ।’

नेता और सांप्रदायिक साधना करनेवालों में भेद !

‘स्वार्थ के लिए राजनीतिक दल परिवर्तित करनेवाले सहस्रों होते हैं; परंतु स्वार्थत्यागी सांप्रदायिक साधना करनेवालों के मन में संप्रदाय परिवर्तित करने का विचार एक बार भी नहीं आता !’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले