कर्नाटक उच्च न्यायालय का हिजाब के विरोध में अध्ययनपूर्ण निर्णय !
१. कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा हिजाब बंदी के विरोध में प्रविष्ट याचिका अस्वीकार कर विद्यालयों और महाविद्यालयों द्वारा लगाई गई हिजाब बंदी का समर्थन किया जाना
कर्नाटक उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने विद्यालयों और महाविद्यालयों में हिजाब बंदी का विरोध करनेवाली धर्मांधों की याचिकाएं खारिज कीं । यह महत्त्वपूर्ण बात है तथा उच्च न्यायालय का यह निर्णय दूरगामी परिणाम करनेवाला है । उठते-बैठते मुल्ला-मौलवियों (इस्लाम के धार्मिक नेता तथा विद्वानों) के प्रभाव में आकर सार्वजनिक स्थानों पर पुरानी प्रथा-परंपराओं को पकडकर बैठने के इस हठ के कारण याचिका प्रविष्ट करनेवालों को मुंह की खानी पडी ।
हिजाब के सूत्र के संदर्भ में कुल ६ याचिकाएं प्रविष्ट की गईं । उनमें धर्मांध छात्राओं पर हिजाब बंदी को चुनौती देनेवाली ४ याचिकाएं थीं । एक याचिका ‘राज्य एवं केंद्र सरकार मुसलमान छात्राओं को हिजाब पहनने की अनुमति दें’, इसके लिए सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. विनोद कुलकर्णी ने प्रविष्ट की थी । साथ ही ‘उठते-बैठते केंद्र सरकार और भाजपाशासित राज्य सरकारों को सतानेवाले धर्मांधों की केंद्रीय अन्वेषण विभाग (सी.बी.आई.) और राष्ट्रीय अन्वेषण विभाग (एन.आई.ए.) से जांच की जाए और क्या इस षड्यंत्र में सहायता करनेवाले ‘पी.एफ्.आई’, ‘स्टूडेंटस् इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन ऑफ इंडिया’, ‘कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया’ (सी.एफ.आई.), ‘जमात-ए-इस्लामी’, इन धर्मांध संगठनों का सहभाग है ?’, इस मांग को लेकर घनःश्याम उपाध्याय ने भी एक याचिका प्रविष्ट की थी ।
कर्नाटक उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने इन सभी याचिकाओं को एकत्रित रूप से सुना । न्यायालय ने डॉ. कुलकर्णी और घन:श्याम उपाध्याय की याचिकाएं अस्वीकार कीं, साथ ही धर्मांधों की ४ याचिकाएं भी खारीज कीं । इस प्रकार न्यायालय ने विद्यालयों और महाविद्यालयों के लिए राज्य सरकार द्वारा लगाई गई हिजाब बंदी का समर्थन किया ।
२. धर्मांधों द्वारा मुसलमान लडकियों और महिलाओं द्वाराक हिजाब पहनना, यह उनकी धार्मिक प्रथा का अभिन्न अंग होने का झूठ बताया जाना
इस संपूर्ण प्रकरण में विद्यालयों और महाविद्यालयों में हिजाब पहनने का समर्थन करते समय धर्मांधों का यह कहना था कि ‘मुसलमान लडकियों और महिलाओं का हिजाब पहनना उनकी धार्मिक प्रथा का अभिन्न अंग है और वैसा करना उनका मौलिक अधिकार है । संविधान द्वारा प्रदान किए गए अनुच्छेद १४, १५, १९, २१ और २५ के आधार पर वे उसका आचरण कर सकती हैं’, इस सूत्र को लेकर उनकी लडकियों और महिलाओं पर हो रहे अत्याचार दूर करने के लिए भारत सरकार ने जो अनुबंध किए, उसका भी आग्रह रखा । इस पर न्यायालय ने बताया कि संविधान की धारा ३९ (फ), ५१-अ (ई) नागरिक के मूलभूत कर्तव्य, अन्य धर्माें के प्रति भाईचारा, समता और समानता सिखाती है । भारत अनेक जातियों, धर्माें, पंथों और विभिन्न परंपराओंवाला देश है । न्यायालय ने उन्हें सदाचार के नियम, सार्वजनिक सुव्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य आदि संविधान में विद्यमान तत्त्वों की भी जानकारी दी ।
३. विद्यालयों और महाविद्यालयों के परिसर में व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा अनुशासन महत्त्वपूर्ण होने का न्यायालय द्वारा बताया जाना और राज्य सरकार के परिपत्र के अनुसार
विद्यालयों-महाविद्यालयों का गणवेश सुनिश्चित करने के अधिकार उनके द्वारा नियुक्त समिति का ही होना सरकार, कुछ सरकारी विभागों, विद्यालयों और महाविद्यालयों की यह भूमिका थी कि विद्यालयों और महाविद्यालयों के परिसर में व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा अनुशासन महत्त्वपूर्ण है । सार्वजनिक स्थानों पर अपनी प्रथाएं अन्यों पर थोपी नहीं जानी चाहिए । भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है; इसलिए गणवेश पहनना अनिवार्य है । वास्तव में देखा जाए तो कुरान में कहीं भी हिजाब को अति आवश्यक धार्मिक प्रथा अथवा परंपरा होने का बताया नहीं गया है । सरकार की ओर से यह बताया गया कि इससे पूर्व छात्राएं कभी हिजाब नहीं पहनती थीं । ‘पी.एफ.आई.’ ‘सी.एफ.आई.’ और अन्य धर्मांध संगठन उन्हें इस विषय में भडका रहे हैं । उनके दबाव में आकर ये लोग पुरानी प्रथाओं और परंपराओं के पालन के लिए आग्रही होते हैं ।
सरकार का यह कहना है कि शिक्षा के संदर्भ में वर्ष १९८३ में कानून बना । उस कानून के आधार पर राज्य सरकार ने ३१ जनवरी २०१४ को एक परिपत्रक निकाला । उसके अनुसार विद्यालयों और महाविद्यालयों का गणवेश सुनिश्चित करने का अधिकार उनके द्वारा नियुक्त समिति को रहेगा । यह एक स्वायत्त समिति है तथा उसने बताया कि ‘विद्यालयों और महाविद्यालयों में गणवेश होना चाहिए ।’ हिजाब और भगवा उत्तरीय पहनना इत्यादि अनिवार्य नहीं है और पहने भी नहीं जा सकेंगे ।
४. उच्च न्यायालय ने निर्णय देते समय देश-विदेश के हिजाबविरोधी अनेक निर्णयों का गहराई से अध्ययन करना
इस संदर्भ में राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का शायरा बानो का तिहरा तलाक प्रकरण, मुंबई का हिजाब के संदर्भ में पुराना निर्णय और प्रयागदास विरुद्ध बुलंद शहर इन उच्च न्यायालय के निर्णयपत्रों को आधार बनाया । इस प्रकरण में कर्नाटक उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने ३ सूत्र सुनिश्चित किए । वो हैं, क्या हिजाब पहनना एक अति आवश्यक धार्मिक परंपरा है ? क्या उस पर प्रतिबंध लगाना संविधान की १९ और २१, इन अनुच्छेदों के विरुद्ध है ? और क्या ५.२.२०२२ का हिजाब बंदी करने का सरकार को अधिकार है ? इन ३ सूत्रों पर माननीय उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने वादी और प्रतिवादी को पर्याप्त अवसर देकर सुनवाई की ।
इसमें कर्नाटक उच्च न्यायालय ने संविधान के अनेक अनुच्छेदों, अनेक राज्यों के उच्च न्यायालयों के निर्णयों, सर्वोच्च न्यायालय के अनेक निर्णयों, साथ ही ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका, इन देशों में उनके न्यायतंत्र द्वारा दिए गए महत्त्वपूर्ण निर्णयपत्र देखें, साथ ही गुरुकुल शिक्षापद्धति, गणवेश, साथ ही संविधान के बनने के समय में उस समिति में सम्मिलित आचार्य जगदीश्वरानंद, अल्लाडी कृष्ण स्वामी अय्यर आदि मान्यवरों द्वारा मूलभूत अधिकारों के विषय पर दिए गए कुछ भाषण भी देखे । इसके साथ ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा पाकिस्तान अथवा भारत के विभाजन के विषय में लिखे गए पुस्तकों का भी आधार लिया । इन सभी सूत्रों को विस्तार से सुना और उसके अनुसार उनके निर्णयपत्रों का विश्लेषण किया ।
५. उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय देते समय मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथों और प्रथा-परंपराओं का विचार किया जाना और उसे कहीं भी हिजाब की आवश्यकता दिखाई न देने से सभी याचिकाएं खारीज की जाना
न्यायालय ने इसका निर्णय करते समय मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथों और उसके संबंधित पुस्तकों का विचार किया । कुरान में विद्यमान सूरा और आयतों के अनुसार हिजाब पहनना अनादि काल से चली आ रही प्रथा नहीं है, अतः उसका पालन करना अनिवार्य नहीं है । वह प्रत्येक व्यक्ति पर छोडा गया है, इसे ध्यान में लिया । कुरान में विद्यमान हदीस और कियास का संदर्भ देकर न्यायालय कहता है कि जहां धर्म का संबंध आता है, वहां जबरदस्ती नहीं की जा सकती; क्योंकि धर्म श्रद्धा पर आधारित होता है; इसलिए हिजाब पहनना अनिवार्य नहीं है । विद्यालयों और महाविद्यालयों में तो बिलकुल नहीं है । उस समय मध्य-पूर्व में महिलाओं पर अत्याचार होते थे । उस समय वहां के मुसलमानों ने ‘अत्याचारों से स्वयं की रक्षा करने के लिए महिलाओं ने बुर्का, पर्दा पद्धति और हिजाब आदि बातों का उपयोग किया, तो सार्वजनिक स्थानों पर उनका सम्मान रखा जाएगा और अत्याचारों से उनकी रक्षा होगी’, यह विचार किया और वे इन साधनों का उपयोग करने लगे । न्यायालय आगे कहता है कि उस समय महिलाओं को केवल उनके भाई, काका, मामा, निकट संबंधियों के सामने आने की और उनसे बोलने की ही अनुमति थी । एक प्रकार से वह उन्हें घर में बंद रखने की ही योजना थी । आगे जाकर काल बदल गया और शिक्षा, नौकरी, व्यापार और व्यवसाय के कारण मुसलमान महिलाओं को भी समाज में विचरण करना आवश्यक बन गया । वर्ष २०१७ में १ सहस्र ४०० वर्षाें की परंपरा प्राप्त तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने के विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आदेश दिए । इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में उसकी पहले से परंपरा नहीं थी, वह हिजाब भी अनिवार्य नहीं है । उसका उद्गम धार्मिक ग्रंथों अथवा अन्य कहीं भी नहीं है । धर्मांध न्यायालय को हिजाब धर्म का पालन करने की प्रथा-परंपरा होने का कोई भी प्रमाण नहीं दे सके । कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कुरान सहित सभी ग्रंथ और उससे संबंधित घटनाओं की पडताल की; परंतु उसे कहीं भी ‘हिजाब एक अति आवश्यक धार्मिक परंपरा है’, ऐसा लिखा हुआ दिखाई नहीं दिया । इसलिए उसके लिए आग्रहित रहकर ‘हम हिजाब पहनकर ही विद्यालय में आएंगे’, ऐसा कहना अनुचित है’, ऐसा मत व्यक्त कर न्यायालय ने सभी याचिकाएं खारीज कीं ।
६. धर्मांधों की पराजय होने पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों, आधुनिकतावादियों और समाचार वाहिनियों द्वारा न्यायालय के विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त की जाना; परंतु हिन्दू धर्म का विषय आने पर उनसे मौन धारण किया जाना
यहां धर्मांधों की मानसिकता ध्यान में लेनेयोग्य है । वे प्रत्येक बात करते समय धर्म का संदर्भ देते हैं और अपने विषय को आगे बढाते हैं । जब उनका विरोध होता है, तब वे उस विरोध को अथवा सरकार के आदेश को न्यायालय में चुनौती भी देते हैं । तब उन्हें न्यायतंत्र का आधार लगता है; परंतु यदि न्यायालय ने उनके विरुद्ध निर्णय दिया, तो वो न्यायालय की आलोचना भी करते हैं । इस संदर्भ में उदाहरण देना हो, तो पूर्व चुनाव आयुक्त एस्.वाई. कुरैशी का दिया जा सकता है । उन्होंने एक दैनिक द्वारा की गई भेंटवार्ता में कहा कि ‘हिजाब कुरान का अंश नहीं है; परंतु अच्छे दिखनेवाले कपडे पहनने चाहिए, ऐसा उसमें कहा गया है । विद्यालय के गणवेश में सिखों को पगडी और अन्यों को तिलक लगाने की अनुमति दी जाती है, तो हिजाब को अनुमति देने में क्या समस्या है ? हिजाब आवश्यक है अथवा नहीं है, यह मौलाना बता सकेंगे । वह सूत्र उनके नियंत्रण में है; परंतु इसके विपरीत मौलाना (इस्लामी विद्वान) यदि भारतीय दंडसंहिता के संदर्भ में निर्णय देने लगे, तो क्या वह उचित होगा ?’ इससे यह समझा जा सकता है कि मुसलमान व्यक्ति कितने बडे धर्मनिरपेक्ष पद पर बैठा हो अथवा उस पद से सेवानिवृत्त हुआ हो, तब भी वह धर्म को ही प्रथम प्रधानता देता है ।
हिन्दू समाज के विरुद्ध भी अनेक निर्णय आते हैं, तब सर्वधर्मसमभाव के पक्षधर, धर्मनिरपेक्षतावादी, इतिहास विशेषज्ञ, विचारक आदि कभी भी हिन्दुओं का पक्ष नहीं लेते । वे उस निर्णय का हिन्दुओं के विरोध में जितना हो सकता है, उतना समर्थन करते हैं । उसके कारण ही हिजाब के विरोध में निर्णय देनेवाले न्यायाधीशों की हत्या की धमकी देने का धर्मांध साहस दिखाते हैं । वर्ष १९८९ में जब आतंकी कृत्यों में संलिप्त आरोपी को न्यायालय ने फांसी का दंड सुनाया, तब आतंकियों ने वह निर्णय देनेवाले न्यायाधीश नीलकंठ गंजू को उनके सेवानिवृत्त होने के उपरांत भी मार दिया । सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय को उनकी होनेवाली अवमानना दूर करने के लिए असीमित अधिकार हैं । इन अधिकारों का उपयोग कर उन्हें अपराधी को उचित पाठ पढाना चाहिए; क्योंकि समाज में न्यायव्यवस्था की धाक होना अत्यंत आवश्यक है ।
७. देश को घेरने की धर्मांधों की आदत को स्थायी रूप से बंद करने के लिए हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बिना अन्य कोई विकल्प नहीं है !
हाल ही में केंद्र सरकार को घेरने के लिए अनेक आंदोलन किए गए । उससे पूरे विश्व में भारत की मानहानि और बदनामी हो; इसके लिए जानबूझकर प्रयास किए जाते हैं । इन आंदोलनों में ‘पी.एफ.आई.’, ‘सी.एफ.आई.’ और ‘जमात-ए-इस्लामी’ सम्मिलित थे । केंद्रीय अन्वेषण विभाग अथवा राष्ट्रीय अन्वेषण विभाग के द्वारा उनका अन्वेषण हो; इसके लिए घनःश्याम उपाध्याय की याचिका थी । इस याचिका में अनुकूल आदेश अपेक्षित था; क्योंकि महाविद्यालय की ओर से भी न्यायालय के सामने उस संदर्भ में उचित प्रमाण प्रस्तुत किए गए थे । उससे ऐसे संगठनों पर कानून का भय बिठाया जा सका था । अर्थात किस याचिका का संज्ञान लेना चाहिए और निर्णय देना चाहिए, यह न्यायतंत्र का काम है । उनके द्वारा दिया गया निर्णय सरकार और पक्षकारों के लिए बंधनकारक है ।
ऐसी सभी घटनाओं के समय धर्मांध धर्मनिरपेक्षता को साख पर बिठाते हैं, यह ध्यान में आता है । इसके लिए सरकार को शीघ्रातिशीघ्र समान नागरिक कानून बनाना चाहिए । धर्मांधों को मिलनेवाली असीमित सुविधाएं, साथ ही सर्वदलीय राजनेताओं ने उन्हें दुराचार करने की जो आदत लगाई है, उसे तोड डालने के लिए हिन्दुओं में जागृति और संगठन होना चाहिए । उसके लिए हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना ही आवश्यक है । मैं यह विनम्रतापूर्वक विदित करना चाहता हूं कि आज के समय में न्यायतंत्र अच्छे प्रकार से कार्य कर रहा है । धर्मांधों का आक्रोश न्यून करने हेतु न्यायव्यवस्था ने तत्परता से जो निर्णय दिया है, उसका भी मैं सम्मान करता हूं ।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु !
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद तथा अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय. (२२.३.२०२२)