असम सरकार का मदरसों में दी जानेवाली शिक्षा बंद करने का साहसिक निर्णय !
१. असम सरकार द्वारा मदरसों में दी जानेवाली धार्मिक शिक्षा के स्थान पर वहां विद्यालयों के विषयों को सिखाने का कानून बनाया जाना
‘पिछले कुछ वर्षों से असम में हिन्दू एवं राष्ट्र प्रेमी सरकार सत्ता में है । वहां के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने राष्ट्र की एकता के लिए आवश्यक निर्णय लिए । सब में आश्चर्य की बात यह है कि जो व्यक्ति अर्थात ही मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा कांग्रेसी संस्कारों में पले बढे हैं और तब भी उन्होंने किसी भी राष्ट्र एवं धर्मप्रेमी आनंदित हो, ऐसे निर्णय लिए । वर्ष २०२० में असम सरकार ने ‘मदरसों में दी जानेवाली धार्मिक शिक्षा बंद कर उसके स्थान पर अन्य विद्यालयों में सिखाए जानेवाले गणित, विज्ञान, सामान्य ज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि विषय सिखाए जाएं’, ऐसा कानून बनाया ।
२. कांग्रेस के द्वारा तुष्टीकरण के लिए मदरसों में धार्मिक शिक्षा देने हेतु निधि उपलब्ध कराया जाना और वहां से शिक्षा लेकर निकलनेवाले छात्र जिहादी आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होने की घटनाएं विविध प्रकरणों में उजागर होना
सर्वप्रथम हमें मदरसा और वहां दी जानेवाली धार्मिक शिक्षा के विषय में जान लेना आवश्यक है । देश को स्वतंत्रता मिलने के उपरांत कांग्रेस ने ६० वर्षाें के सत्ताकाल में विविध कानून बनाकर मदरसों में धार्मिक शिक्षा देने का प्रबंध किया । उसने वहां अरेबिक, पर्शियन, उर्दू भाषेसह कुराण, तफसीर, हदिस, उसूल, अकीर, हिकमत जैसे विषय सिखाने की अनुमति दी । क्या वहां से शिक्षा लेनेवाले छात्र राष्ट्रसेवा करनेवाले थे ?; परंतु तब भी उन्होंने ऐसे मदरसों को अनुदान और वहां शिक्षा देनेवाले मौलवियों को (इस्लाम के धार्मिक नेता) वेतन आरंभ किया ।
संपूर्ण विश्व में फ्रान्ससहित कई देशों ने मदरसों पर प्रतिबंध लगाया है । पूर्व के वसीम रिजवी और वर्तमान के जितेंद्र सिंह त्यागी तथा बांग्लादेशी लेखिका तस्लिमा नसरीन जैसे सुधारतावादियों ने विश्व के सामने मदरसों की वास्तविकता रखी है, साथ ही उन्होंने इन मदरसों में दी जानेवाली शिक्षा के कारण होनेवाले दुष्परिणाम भी विश्व के सामने रखे हैं । ऐसा होते हुए भी भारत में बडी संख्या में मदरसे चल रहे हैं । इन मदरसों में निश्चितरूप से क्या शिक्षा दी जाती है ?, यह समझ लेने के लिए अभीतक संपूर्ण देश में हुए बमविस्फोटों के प्रकरणों में गिरफ्तारत किए गए कई धर्मांध आरोपियों, आतंकियों और जिहादियों द्वारा पुलिस को दिए गए जवाब पढने होंगे । उनके जिहादी कृत्यों के पीछे उन्हें दी गई धर्मशिक्षा ही एकमात्र कारण होने की बात सामने आई है । ऐसा होते हुए भी कांग्रेस और कथित धर्मनिरपेक्षतावादी राजनीतिक दलों द्वारा बडी मात्रा में धर्मांधों का तुष्टीकरण किया जा रहा था ।
३. असम के मदरसा विरोधी कानून के विरोध में उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं प्रविष्ट होना और उच्च न्यायालय द्वारा सरकार के निर्णय को उचित प्रमाणित किया जाना
अ. धर्मांधों द्वारा संविधान की विविध धाराओं का संदर्भ देकर मदरसों में कौनसी शिक्षा देनी चाहिए ?, इसका अधिकार उन्हें होने की बात बताई जाना : वर्ष २०१४ में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी । उसके उपरांत असम में स्थित भाजपा की ही सरकार ने मदरसों में धार्मिक शिक्षा न देकर अन्य विद्यालयों की भांति शिक्षा देने का कानून बनाया गया । धर्मांधों ने इस कानून की वैधता को अ सम उच्च न्यायालय में चुनौती दी । इस कानून के विरोध में विविध प्रकार की १३ याचिकाएं प्रविष्ट की गईं । ये सभी याचिकाएं द्विसदस्यीय खंडपीठ के पास आईं । इस प्रकरण में धर्मांधों ने उच्च न्यायालय में तर्कवाद किया, ‘संविधान में धारा २५ और २६ के माध्यम से उनकी धार्मिक गतिविधयों को अनुमति दी गई है, इसके साथ ही संविधान की धारा ३० मुसलमानों को उनके विद्यालयों, महाविद्यालयों और संस्था खोलने की अनुमति देता है ।’ उन्होंने यह भी बताया कि वर्ष १९९५ के उपरांत मदरसों के विषय में कई कानून बने और उसके माध्यम से मदरसों को सरकारी अनुदान भी मिलता है । वहां कौनसी शिक्षा देनी चाहिए, यह उनका अधिकार है और वही छात्रों की रूचि भी है ।
आ. असम सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में मदरसों में केवल किसी पंथ का पाठ्यक्रम सिखाया जाना, यह संविधान से विसंगत होने की भूमिका रखी जाना : इसका प्रतिवाद करते हुए सरकार ने उच्च न्यायालय में बताया, ‘‘इस देश में कई धर्म और पंथ हैं; इसलिए मदरसों में केवल उनके पंथ का पाठ्यक्रम नहीं होना चाहिए । ऐसा करना संविधान से विसंगत है । उसी प्रकार असम राज्य के २५ सहस्र छात्रों ने मदरसों की शिक्षापद्धति छोडकर सर्वसामान्य विद्यालयों में प्रवेश किया है । चिकित्सकीय और अभियांत्रिकी जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में सुलभता से प्रवेश मिले; इसके लिए उन्होंने सर्वसामान्य शिक्षाव्यवस्था अपनाना सुनिश्चित किया ।’’
इ. असम सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में अंग्रेजों के काल से लेकर विविध संदर्भ देकर प्रतिवाद किया जाना : इस सुनवाई के समय उच्च न्यायालय के सामने वर्ष १८५४ में ब्रिटिश गवर्नर जनरल डलहौसी ने जो शिक्षापद्धति अपनाई ती, वह दिखाई गई । उसके उपरांत भारत के तत्कालीन संविधान में परिवर्तन लाने हेतु अंग्रेजों के कार्यकाल में ब्रिटिश संसद के सांसदों का ‘साइमन कमिशन’ (आयोग) भारत भेजा गया । इस आयोग का भारत में ‘साइमन गो बैक’ (साइमन वापस जाओ) के नारे देकर तीव्र विरोध किया गया । उसके उपरांत दो सदस्यीय समिति गठित की गई थी । उस समिति ने भी यह बताया था कि राज्य अथवा केंद्र सरकार की ओर से किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, साथ ही इसी सूत्र पर आधारित तत्कालीन संसद में जो भाषण दिए गए थे, उसमें उसी सूत्र पर ऊहापोह किया ता । इन सभी सूत्रों को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करते हुए सरकार ने मोहनदास गांधी द्वारा ‘सर्व धर्म एवं पंथों के साथ समान व्यवहार किया जाए’, इस सूत्र को प्रमुखता से रखा ।
ई. सरकारी अनुदान से छात्रों को धार्मिक शिक्षा के स्थान पर सर्वसामान्य शिक्षा देने के विषय में सरकार के द्वारा रखा गया पक्ष ! : सरकार ने न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संविधान की धारा २८ ‘सरकारी अनुदान से चलनेवाले विद्यालयों से धार्मिक निर्देश नहीं दिए जा सकते’, ऐसा बताती है । उसी प्रकार धारा २८ उपधारा के अनुसार ‘छात्रों के लिए बलपूर्वक धार्मिक उपासना पद्धति लागू नहीं की जा सकती’, यह बंधन होने की बात बताती है । ऐसा होते हुए भी सरकार मदरसों को कैसे अनुदान दे सकती है ? मदरसों को सरकारी अनुदान मिलता है । अतः उस अनुदान ने छात्रों को सर्वसामान्य शिक्षा दी जानी चाहिए । वहां किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती ।
उ. इस याचिका में धर्मांधों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय को चुनौती दी गई थी और वो याचिकाएं अस्वीकार की गईं । उसका भी ऊहापोह किया गया; परंतु वहां याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि यह विश्वविद्यालय मुसलमानों की ओर से चलाया जाता है; परंतु उस पर सरकार ने वर्ष १९२० और वर्ष १९३५ के कानून, साथ ही अन्य कानून के विषय में विविध संदर्भ देकर न्यायालय के सामने यह प्रमाण रखा कि वहां केंद्र सरकार कै पैसों ने केवल शिक्षकों और कर्मचारियां का वेतन दिया जाता है; परंतु वहां का प्रबंधन सरकारी है और वह मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं है । इसके अतिरिक्त ‘एनसीईआरटी अधिनियम’ की धारा २८ यह बताती है कि प्रत्येक धर्म की सीख और मूलतत्त्व एक ही हैं और केवल उपासना पद्धति अलग है । ऐसा होते हुए भी हमने ‘एनसीईआरटी’ का स्वीकार किया, तो मदरसों से मुसलमान छात्रों को धार्मिक शिक्षा कैसे दी जा सकती है ।
इस तर्कवाद के आधार पर असम उच्च न्यायालय ने सरकारी मदरसों में धार्मिक शिक्षा बंद करने का निर्णय बनाए रखा । वास्तव में देश में भाजपाशासित कई राज्य इस प्रकार के कानून बना सकते हैं और वो कानून उच्च न्यायालयों में टिक भी जाते हैं; इसलिए राष्ट्र एवं धर्मप्रेमियों को ऐसा लगता है कि भाजपाशासित राज्य सरकारों को ऐसे साहसिक और कठोर निर्णय लेने चाहिएं ।
४. सरकारी पैसों से धर्मांधों का अनुनय करना बंद कर छात्रों में राष्ट्रप्रेम जागृत करनेवाली शिक्षापद्धति लागू की जाए !
इसके साथ ही मदरसों में सिखाई जानेवाली राष्ट्रविरोधी शिक्षा और विचारधारा तुरंत बंद की जाए । यहां भारत सरकार को फ्रान्स सरकार का आदर्श सामने रखना चाहिए । फ्रान्स में एक रात में ही सभी मदरसे और मस्जिदें बंद की गईं । ‘मदरसों में जिहाद, आतंकवाद और राष्ट्रद्रोह को बल देननेवाली शिक्षा दी जाती है’, ऐसा बताते हुए फ्रान्स ने राष्ट्रविरोधी शिक्षा देनेवाले केंद्र बंद किए । ‘समान नागरिक कानून लागू न करने, धर्मांधों की बढती जनसंख्या पर लगाम न लगाने और धर्मांधों का तुष्टीकरण करने के कारण विगत ७५ वर्षाें में भारत का बहुत पतन हुआ है । कोई भी केंद्र सरकार केवल हिन्दुओं के मतों पर ही चुनकर आती है; इसलिए उन्हें राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने हेतु कुछ साहसिक निर्णय लेने चाहिएं, यह राष्ट्रप्रेमी नागरिकों की अपेक्षा है । साथ ही ‘सरकारी पैसों से धर्मांधों का चल रहा अनुनय बंद करना चाहिए और छात्रों में राष्ट्रप्रेम जागृत हो, इस प्रकार की शिक्षापद्धति लागू करनी चाहिए’, यह भी राष्ट्रप्रेमी जनता की भावना है । लोकतंत्र में हिन्दुओं के साथ होनेवाला भेदभाव हिन्दू राष्ट्र की मांग अनिवार्य बनाना है, यह निश्चित है !
जयतु जयतु हिन्दुराष्ट्रम् ! श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।’
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद तथा अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय. (१६.२.२०२२)