लोकतंत्र के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ न्यायव्यवस्था की परिवारवाद !
सदोष लोकतंत्र एवं उस संदर्भ में कुछ भी न करनेवाले निद्रित मतदार !
लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
वर्तमान में भारत की स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव वर्ष चालू है । गत ७४ वर्षों में ऐसे अनेक चुनाव हुए, जनता को विविध आश्वासन दिए गए; परंतु वास्तविकता से जनता का भ्रम टूट गया । इस पृष्ठभूमि पर लोकतंत्र की त्रुटियां, प्राचीन भारतीय आदर्श राज्यव्यवस्था आदि के विषय में जनजागृति करने की दृष्टि से इस विषय कर लेखश्रृंखला प्रकाशित कर रहे हैं । अब तक हमने स्वतंत्रता पूर्व काल के भारत की आदर्श पितृतुल्य शासनव्यवस्था, भारत के लोकतंत्र की शोकांतिका एवं लोकतंत्र में भ्रष्टाचार’ यह शासकीय कार्यालयों की मानो कार्यप्रणाली ही है’ आदि विषयों पर सूत्र पढे । अब ‘लोकतंत्र अथवा परिवारवाद ?’ इस विषय के सूत्र यहां दे रहे हैं ।
उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायाधीशों को ही नए न्यायाधीशों के चुनाव के लिए दिया अधिकार !
हमें आपने देश के लोकतंत्र में परिवारवाद केवल राजकीय क्षेत्र तक ही मर्यादित नहीं रह गई, अपितु उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय में भी एक प्रकार की परिवारवाद चालू है । उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायाधीशों को ही नए न्यायाधीशों को चुनने का दिया अधिकार, जिसे कॉलेजियम पद्धति’ भी कहा जाता है, वह इस परिवारवाद की अपेक्षा अलग कुछ नहीं । न्यायधीशें के चुनाव में राजकीय हस्तक्षेप टालने के नाम पर वर्ष १९९३ में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह पद्धति लागू की थी । इसकारण उच्चतम न्यायालयों ने राजकीय वर्चस्व झटक दिया; मात्र उसी समय अपना वर्चस्व निर्माण किया और उसकी परिणति आज ‘हम करें सो कानून’ इसमें हो गई है । ‘कॉलेजियम’ नाम से पहचाने जानेवाले इन न्यायाधीशों की चुनाव पद्धति में सरन्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की सहायता से उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के अन्य (नए) न्यायाधीश चुनते हैं । सरन्यायाधीशों की सहमति के पश्चात ही न्यायाधीशों की सूची केंद्र सरकार को भेजी जाती है । उसमें केवल गुप्तचर तंत्र से उनके संदर्भ में जानकारी लेने का अधिकार सरकार को होता है । उन्हें उस आधार पर किसी नाम का विरोध कर, उस नाम को हटाने की विनती करने का अधिकार है; मात्र सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दूसरी बार भी वही नाम संमति के लिए भेजने पर केंद्र सरकार उस विषय में कुछ नहीं कर सकती है । इसके साथ ही वर्तमान न्यायाधीशों की पदोन्नति एवं स्थानांतर (बदली) करने का अधिकार भी उनके ही पास होता है । इसमें न्यायाधीश के चयन के सर्वाधिकार न्यायाधीशों के पास ही होने से, इसके साथ ही सर्व प्रक्रिया बंद दरवाजे की आड में होने से नए न्यायाधीशों के चुनने मेें /निवडीत वर्तमान न्यायाधीशों के कुटुंब के सदस्यों का चयन करने की प्रधानता दी जाती है । यह आकडेवारी से सामने आता है । ‘कॉलेजियम’की कार्यपद्धति में पारदर्शकता नहीं दिखाई देती । किस न्यायमूर्ति का नाम चर्चा में है किस की पदोन्नति रोक दी गई ? और किसे पदोन्नति मिली इत्यादि के विषय में समाज को यह जानकारी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है, ऐसी भावना लोगों में निर्माण हो गई है । उसी में वर्ष २०१२ में न्यायमूर्ती सौमित्र सेन पर भ्रष्टाचार के आरोप होकर उन पर महाभियोग प्रविष्ट किया गया है, इसकी पुष्टि ही मिली है ।
न्यायाधीश का चयन करने की पद्धति अन्य लोकतंत्र शासनव्यवस्था में न होना
एक प्रकरण में गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति भास्कर भट्टाचार्य ने आरोप किया है कि उन्होंने भूतपर्व सरन्यायाधीश अल्तमश कबीर की बहन का कोलकाता उच्च न्यायालय में पदोन्नति का विरोध किया था । इसीलिए न्या. कबीर ने न्या. भट्टाचार्य की सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति नहीं होने दी । इस ‘कॉलेजियम’ पद्धति के विरोध में जनहित याचिका प्रविष्ट करनेवाले अधिवक्ता मैथ्यु नेदुमपारा ने याचिका में प्रस्तुत शोध का अनुसार उच्च न्यायालय के ५० प्रतिशत, तो सर्वोच्च न्यायालय के ३३ प्रतिशत न्यायाधीश, ये न्यायव्यवस्था के उच्चपदों पर आसीन कुटुंबीय हैं । उससे भी आगे जाकर जानकारी दी गई है कि ‘कॉलेजियम’द्वारा चुने गए सर्वोच्च न्यायालय के ३१ न्यायाधीशों में से ६ न्यायाधीश भूतपूर्व न्यायाधीशों के बच्चे थे । इसके साथ ही १३ उच्च न्यायालयों के चुनाव में चुने गए ८८ न्यायाधीश किसी न किसी प्रकार न्यायालय से संबंधित व्यक्तियों के सगे-संबंधी थे । न्यायाधीश चुनाव की ऐसी पद्धति जगत के किसी भी शासनव्यवस्था में नहीं है । ऐसे वादग्रस्त नियुक्तियों के कारण विधि (कानून) आयोग ने भी इस पद्धति को बदलने की अनुशंसा (सिफारिश) की है; परंतु उच्च न्यायालय ने भी इस पद्धति के विरोध में केंद्र सरकार द्वारा संमत किए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ पद्धति को असंविधानिक होना करार कर, लागू करने से स्पष्ट नकार दिया है । इसके साथ ही इस संदर्भ में की गई सर्व याचिकाएं निरस्त कर दी गईं हैं । अब इसे भारत की लोकतंत्र के न्यायक्षेत्र की परिवारवाद न कहें, तो क्या कहेंगे ?’
(क्रमशः)