सदोष लोकतंत्र एवं उस संदर्भ में कुछ भी न करनेवाले निद्रित मतदार !
लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
भाग ९.
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६. लोकतंत्र या परिवारवाद ?
६ इ. लोकतंत्र का कौटुंबिक हुकुमशाही’ की ओर मार्गक्रमण चिंताजनक ! : राजकीय पक्ष की शक्ति कुछ स्थानों पर एक व्यक्ति में, तो कुछ स्थानों पर एक कुटुंब में केंद्रित होकर रहती है । राजनीति पर अपना नियंत्रण पुनर्प्रस्थापित करने के लिए यह राजकीय घराने अन्य किसी को भी अवसर नहीं देते । अपने देश के विधायक एवं सांसद, ये देशभक्ति पर अनेक भाषण करते हैं; परंतु एक भी राजनेता अपने बेटे को सेना में भरती कर, देश की रक्षा के लिए सीमा पर नहीं भेजता । उसके स्थान पर किसी सहकारी क्षेत्र के चीनी कारखाने से चुने जाने की ओर उनका झुकाव रहता है । कुल मिलाकर राजनीति में केवल आपसी हित देखे जाते हैं, शेष सभी बातें परिस्थितिनुसार बदलती जाती हैं । इसीलिए अब ‘विचारधाराओं की राजनीति ’ यह राजनीति में एक बहुत बडा विनोद बन गया है । कुछ महीनों पूर्व लोकतंत्र में परिवारवाद पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कठोर टीका करते हुए कहा था कि ‘परिवारवाद की राजनीति, सामाजिक भ्रष्टाचार का बहुत बडा कारण है ।’ यह परिवारवाद ही लोकतंत्र को ‘पारिवारिक लोकतंत्र’ की ओर वेग से लेकर जा रही है । परिवारवाद द्वारा लोकतंत्र का यह दुर्भाग्यपूर्ण पराजय है । यह भारतीय संविधान के लिए अपेक्षित लोकतंत्र निश्चित ही नहीं । यह चित्र जगत के सबसे बडे लोकतंत्र के लिए लज्जाजनक है ।’
(क्रमशः)
श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति.