सदोष लोकतंत्र एवं उस संदर्भ में कुछ भी न करनेवाले निद्रित मतदार !
लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
भाग ६.
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५. लोकतंत्र की लज्जाजनक व्यवस्था
५ अ. राजनीति में बढता अपराधीकरण ! : राजनीति में बढता अपराधीकरण, यह देश के सामने भीषण समस्या है । वर्तमान में राजकीय पक्षों में ‘चुनकर आने की क्षमता’, यही महत्त्वपूर्ण मापदंड बन जाने से नैतिकता, जनसेवा अथवा शिक्षा की अपेक्षा अपराधियों को अधिक महत्त्व मिल गया है । सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार इस राजनीति के अपराध के विषय में चिंता व्यक्त करते हुए टिकट जिसे दिए जा रहा है, उस प्रत्याशी की अपराधी पृष्टभूमि अब सार्वजनिक करने का आदेश दिया है; परंतु यहां भी अपराध में आरोपी है, परंतु अपराध अब तक प्रमाणित नहीं हुआ है’, ऐसा बचने का मार्ग इस अपराधी प्रत्याशी को मिल जाता है । इस राजनीति में अभियोग ‘तारीख पर तारीख’ इस पद्धति से वर्षों तक चलती रहती है और साथ में राजकीय मार्गक्रमण (कैरियर) ! विद्यमान चुनावों में भी उत्तरप्रदेश के समाजवादी पक्ष द्वारा कारागृह में बंदी बने अनेक अपराधियों के टिकट घोषित किए हैं । जब किसी की अपराधी कृति प्रमाणित हो जाए, तब ऐसे में उस अपराधी की पत्नी को अथवा बेटे को टिकट देने का सरल मार्ग का अपना लिया जाता है । निर्धन जनता के पास पर्याय ही नहीं होता, उन्हें उस अपराधी लोकप्रतिनिधि के क्षेत्र में अपने कुटुंब सहित सुरक्षित रहना होता है । ‘राजनीति का अपराधीकरण’ यह वास्तव में एक स्वतंत्र लेख का विषय है; परंतु विस्तार के भय से यह उसका केवल प्रातिनिधिक स्वरूप की आकडेवारी दी है । केरल के इडुक्की मतदारसंघ के काँग्रेस के सांसद डीन कुरियाकोसे के विरुद्ध लगभग २०४ अपराध प्रविष्ट हैं ! लोकतंत्र को मंदिर कहनेवाली संसद में वर्ष २००९, २०१४ एवं २०१९ में चुनकर आए अपराधी सांसदों की बढती आकडेवारी यह किसी भी सज्जन नागरिक को शर्म से अपनी गर्दन नीचे झुकाने पर बाध्य करनेवाली है । इसमें कुछ अपराध आंदोलन, निषेध आदि राजकीय स्वरूप के थे, तब भी अनेकों पर विनयभंग, बलात्कार का प्रयत्न, हत्या का प्रयत्न, हत्या जैसे गंभीर आरोप भी हैं ।
यह आकडे केवल संसद की है । देश की सर्व विधानसभा, जिला परिषद, महानगरपालिका, नगरपालिका एवं ग्रामपंचायतों में भी चुनकर आनेवाले प्रत्याशियों की स्थिति इससे कुछ अलग नहीं !
५ आ. अयोग्य नेता चुनने से समाज की आध्यात्मिक स्तर पर भी हानि ! : स्वतंत्रता के उपरांत भी राष्ट्र एवं धर्म के संदर्भ में योग्य क्या और अयोग्य क्या ?’, इसका विचार न कर पानेवाली जनता ने ऐसों को ही ‘राज्यकर्ता’ के रूप में चुना है । इसलिए साधना, धर्मशिक्षा एवं धर्मपालन का नाश हुआ । आज भारत में बहुसंख्य समाज साधना न करनेवाला और रज-तमप्रधान हो गया है । परिणामस्वरूप निर्धनता, भ्रष्टाचार, अपराधी प्रवृत्तियां सभी स्तरों पर देश का पतन हुआ है । लोकतंत्र की यह हास्यास्पद व्यवस्था ही उसके असफल होने का मूल कारण बन गई है । यह चित्र बदलने के लिए नेतृत्व करनेवाली कार्यप्रणालियों में आमूलाग्र परिवर्तन करने की आवश्यकता है ।’
(क्रमशः)
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श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति.