सदोष लोकतंत्र एवं उस संदर्भ में कुछ भी न करनेवाले निद्रित मतदार !
लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
भाग ५.
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५. लोकतंत्र की लज्जाजनक व्यवस्था
वर्तमान में किसी कार्यालय में यदि चपरासी की नौकरी चाहिए तो संबंधित प्रत्याशी (candidate, उम्मीदवार) की शैक्षणिक पात्रता देखी जाती है; परंतु राज्य का, इसके साथ ही देश का संपूर्ण कार्यभार, अर्थव्यवहार एवं संरक्षणव्यवस्था देखनेवाले विधायक, सांसद, मंत्री, इतना ही नहीं; परंतु प्रधानपद समान सर्वोच्च पद पर जाने के लिए भी किसी भी शैक्षणिक पात्रता की आवश्यकता नहीं होती । यहां पश्चिमी शिक्षाव्यवस्था को महत्त्व देने का उद्देश्य कदापि नहीं; परंतु न्यूनततम योग्यता तो सुनिश्चित की जानी चाहिए । लोकतंत्र में शासनकर्ता चुनने के लिए केवल बहुमत का आधार लिया जाता है; मात्र राजकीय पदों के लिए पात्रता की आवश्यकता ही स्पष्ट न होने से राजकीय दृष्टि से जातीय-आर्थिक समीकरण जोडकर अथवा गुंडों की सहायता से धौंस दिखाकर, चुनाव जीतने की कला से अवगत असक्षम लोकप्रतिनिधि चुनकर आते हैं । इसी कारणवश भारतीय लोकतंत्र में आज भी शहाबुद्दीन जैसे बडे-बडे गुंडे, इसके साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप में कारागृह में बंद लालूप्रसाद यादव के शिक्षा बीच में ही छोड कर, दोनों बेटे बडी सहजता से चुनकर आ रहे हैं और मंत्रीपद पर भी बैठ रहे हैं । मात्र ऐसे लोकप्रतिनिधियों की छत्रछाया में काम करनेवाले अधिकारी आइ.ए.एस’, आइ.पी.एस’ आदि होना बंधनकारक होता है ! उसी प्रकार जीवनभर कभी भी देश की सुरक्षा का विचार न करनेवाले, युद्धनीति का कोई अध्ययन अथवा ज्ञान न होनेवाले संरक्षणमंत्री बनकर देश की सीमाओं की रक्षा का दायित्व लेते हैं एवं सेना को आदेश देते हैं । जिनकी अपनी शिक्षा पर प्रश्नचिन्ह है, ऐसे लोकप्रतिनिधि शिक्षणमंत्रीपद पर बैठकर शिक्षा की नीति एवं भारत की भावी पीढियों का भविष्य निश्चित करने का विचार करते हैं । उसमें भी यह पद कितने काल के लिए उनके पास होगा, यह उन्हें ही पता नहीं होता । इसलिए सरकार की सुविधानुसार मंत्रीपद पर परिवर्तन होने पर अथवा सरकार अल्पमत में आने से, पुन: ऐसा ही प्रकार नवीन लोकप्रतिनिधि उस पद पर बैठकर इस सर्कस के ‘रिंगमास्टर’ बन जाते हैं । पद पर नए मंत्री आने पर, उसके पहले कुछ महीने पुराने मंत्री का निर्णय कैसे जनहित की दृष्टि से अयोग्य एवं संविधान की दृष्टि से गलत था’, यह कहते हुए उसे रहित करने में एवं स्वयं के लिए अनुकूल अधिकारी हाथ के नीचे नियुक्त किए जाते हैं । यदि सभी मंत्री पदग्रहण करते समय भारतीय संविधान की, कानून का पालन करने, इसके साथ ही जनहितार्थ कार्य करने की शपथ ग्रहण कर निर्णय लेते हैं, तो पहले के मंत्री का निर्णय एकाएक जनहित के विरोध में अथवा देश के संविधान के विरोध में कैसे होता है ? यदि उनके निर्णय जनहितार्थ नहीं थे, तो उन पर जनता के साथ, संविधान के साथ छल करने का अपराध क्यों नहीं प्रविष्ट किया जाता ? यह विरोधाभास शिक्षा, नैतिकता, सुसंस्कार आदि को ठेंगा दिखानेवाला है ।
(क्रमशः)
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श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति.