क्या बुद्धि शिक्षा का विधि विधान निश्चय कर सकती है ?
सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?
पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिंदी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । गत लेख में ‘मानवी बुद्धि एवं पारमार्थिक तथ्य !’, इन विषयों पर किया विवेचन दिया गया था । अब देखेंगे उसका अगला भाग ! (भाग १३)
४९. शिक्षाप्रणाली कैसी होनी चाहिए एवं उस विषय के निर्णय !
शिक्षा का विधि-विधान से हमारा तात्पर्य शिक्षा के उद्देश्य, पठन-पाठन की विधि एवं विधान, गुरु एवं शिष्य की योग्यता एवं व्यवहार, शिक्षा संबंधी विषयों का निर्धारण इत्यादि से है । शिक्षा के इन क्रिया-कलापो के विषय में शिक्षण संस्थाओं में कभी-कभी चर्चाएं, तर्क-वितर्क एवं वाद-विवाद होते हैं, परंतु किसी यथार्थ निर्णय पर पहुंचना उनके लिये प्रायः कठिन हो जाता है । विभिन्न मत व्यक्त किए जाते हैं । कोई-न-कोई निर्णय लेना उनकी बाध्यता हो जाती है, इसलिए कुछ निर्णय ले लिए जाते हैं ।
५०. मन की अनुकूलता एवं वादविवाद !
आजकल मनोराज्य का अधिक बोल-बाला है । मनुष्य का अंतर्मन समझता है कि उसका ही विचार ठीक है । मनुष्य अपनी वासनाओं के विषयों (रूप, रस, गंध, श्रवण और स्पर्श) एवं ज्ञान का मनोनुकूल भोग चाहता है। ऐसी स्थिति में विविध निर्णयों या क्रिया-कलापों के विषय में वाद-विवादों का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
५१. आधुनिक शिक्षा एवं बुद्धि की क्षमता
आधुनिक काल में सभी देख रहे हैं कि विज्ञान ने कितनी उन्नति की है, अनेक वैज्ञानिक सिद्धांतों का निर्धारण हुआ है और नए-नए सुविधाजनक उपकरणों का आगमन हुआ है । जनसाधारण एवं आधुनिक वैज्ञानिक, इन सबको मानवीय बुद्धि की निपुणता एवं कुशलता का ही परिणाम समझते हैं । आधुनिक मनुष्य में यह निष्ठा व्याप्त हो गई है कि बुद्धि जब सभी सांसारिक कार्य कर रही है तो शिक्षा के विषय में भी निर्णय क्यों नहीं ले सकती ? अवश्य ही ले सकती है, बुद्धि इस कार्य के लिए भी सक्षम है ।
५२. मनुष्य को सृष्टि का महत्त्व, इसके साथ ही सृष्टि एवं मनुष्य के पारस्परिक भेद को समझ लेना चाहिए !
शीर्षक में उठाया गया प्रश्न अनुचित लगेगा । शीर्षक का प्रश्न अनुचित लगना मनुष्य के अज्ञान के कारण है, अविवेक के कारण है, भोगवादी सभ्यता के प्रभाव के कारण है । मनुष्य को प्रकृति के महत्त्व (गुणों) को समझना होगा, प्रकृति और मनुष्य के परस्पर कार्यों में अंतर को समझना होगा । मनुष्य को यह भी जानना होगा कि सांसारिक मनुष्य की बुद्धि यदि निश्चयात्मक नहीं, तो फिर किस प्रकार की बुद्धि निश्चयात्मक निर्णय प्रदान करने में सक्षम है ?
५२ अ. प्रकृति एवं उसे नमस्कार करने का महत्त्व : आधुनिक समस्त वैज्ञानिक उपकरण प्रकृति प्रदत्त पदार्थों अथवा उनके मिश्रण से बने हैं और उन पदार्थों या उनके मिश्रण के गुण भी प्रकृतिप्रदत्त हैं, मनुष्य की बुद्धि ने नहीं दिए हैं । मनुष्य की बुद्धि ने केवल उन गुणों के प्रयोग का आविष्कार किया है, जिसके कारण विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं उपकरणों का उद्भव हुआ । दूसरी एक मुख्य बात यह भी है कि जिस मानव बुद्धि ने विज्ञान का आश्चर्यजनक प्रसार किया है, वह बुद्धि भी प्रकृतिप्रदत्त है । मनुष्य ने उस बुद्धि का निर्माण नहीं किया । इसलिए सर्वप्रथम हमें प्रकृति को प्रणाम करना चाहिए । (समाप्त)
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझाजी, वरिष्ठ शोधकर्ता एवं भारतीय संस्कृति के अध्ययनकर्ता (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)