सीधे ईश्वर से चैतन्य और मार्गदर्शन ग्रहण करने की क्षमता होने से, आगामी ईश्वरीय राज्य का संचालन करनेवाले सनातन संस्था के दैवी बालक !
‘सनातन के दैवी बालकों की अलौकिक गुणविशेषताएं’
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संकल्प अनुसार कुछ वर्षाें में ही ईश्वरीय राज्य की स्थापना होनेवाली है । अनेकों के मन में यह प्रश्न उठता है कि ‘यह राष्ट्र कौन चलाएगा ?’ इसके लिए ईश्वर ने उच्च लोकों से दैवीय बालकों को पृथ्वी पर भेजा है । इन दैवीय बालकों में सीखने की वृत्ति, वैचारिक प्रगल्भता, उत्तम शिष्य के अनेक गुण होना, श्री गुरु का आज्ञापालन तुरंत करना, उन्हें होनेवाली अनुभूतियां एवं उनकी सूक्ष्म की बातें समझने की क्षमता, इस प्रकार की विशेषताएं इस स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित कर रहे हैं ।
अभिभावको, दैवी बालकों को साधना में विरोध न करें, अपितु उनकी साधना की ओर ध्यान दें !‘कुछ दैवी बालकों का आध्यात्मिक स्तर इतना अच्छा होता है कि वे आयु के २० – २५ वें वर्ष में ही संत बन सकते हैं । कुछ माता-पिता ऐसे बालकों की पूर्णकालीन साधना को विरोध करते हैं और उन्हें माया की शिक्षा सिखाकर उनका जीवन व्यर्थ करते हैं । साधक को साधना में विरोध करने समान बडा दूसरा महापाप नहीं है । यह ध्यान में रखकर ऐसे माता-पिता ने बच्चों की साधना भलीभांति होने की ओर ध्यान दिया, तो माता-पिता की भी साधना होगी तथा वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होंगे !’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१८.५.२०१८) |
सेवाभावी वृत्ति एवं ‘इसी जन्म में आयुर्वेद की सेवा करने का अवसर मिले’, इसके लिए प्रार्थना करनेवाली ६७ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त पुणे की कु. प्रार्थना महेश पाठक (आयु १० वर्ष) !
१. बचपन से ही प्रार्थना को धन्वंतरि देवता अच्छे लगना
‘जब प्रार्थना २ वर्ष की थी, तब से उसे धन्वन्तरि देवता अच्छे लगते हैं । धन्वन्तरि देवता की मूर्ति अथवा चित्र देखने पर उसे आनंद होता है । जब वह ४ वर्ष की थी, तब मैं और प्रार्थना एक शिविर के लिए रामनाथी आश्रम गए थे । उस समय वह वहां के वैद्यों के पास जाकर देखती थी कि ‘वैद्यों की सेवा कैसे चलती है ?’
२. प्रेमभाव
२ अ. आयु में छोटी होते हुए भी सभी की प्रेमपूर्वक पूछताछ करना : बचपन से ही प्रार्थना जब भी बीमार हो जाती, तब हम उसके उपचार के लिए पुणे के एक बालरोग विशेषज्ञ के पास लेकर जाते थे । वे बालरोग विशेषज्ञ जैन संप्रदाय के और सात्त्विक वृत्ति के हैं । वे प्रेमपूर्वक प्रार्थना से पूछते, ‘तुम्हें क्या हो रहा है ?’, तब प्रार्थना भी उनसे अपनेपन से पूछती ‘आप कैसे हैं ?’, (उस समय वह ४ वर्ष की थी ।) ‘आयु में छोटी होते हुए भी प्रार्थना अन्यों का हालचाल कितने प्रेम से लेती है ?’ इस बात की बालरोग विशेषज्ञ बहुत सराहना करते थे ।
२ आ. चिकित्सालय में आनेवाले बीमार साधकों की सहायता करना : प्रार्थना जब ८ – ९ वर्ष की थी, तब रामनाथी आश्रम में रहती थी । उसे वैद्यों के पास चल रही सेवाओं में रुचि थी । वैद्य साधकों के प्रति उसे अपनापन लगता हैै । उनके पास आनेवाले बीमार साधकों की वह स्वयं ही पहल कर सहायता करती । उस सेवा से उसे बहुत आनंद मिलता था ।
३. मां को अस्पताल में भरती करने पर छोटी होते हुए भी प्रार्थना को अस्पताल के वातावरण से डर न लगना एवं मां को बीमार लोगों को साधना बताने के लिए कहना
प्रार्थना को रक्त दिखाई देने पर अथवा कोई अपघात देखने पर उसका डर नहीं लगता । गत कुछ वर्षाें में मुझे २ – ३ बार पुणे के नवले रुग्णालय में भरती किया गया था । इससे पहले भी मुझे अन्य रुग्णालयों में भी विविध शारीरिक कष्टों के लिए भरती किया था । तब रुग्णालय का वातावरण देखकर प्रार्थना को डर नहीं लगता था । उसे उसके विषय में पूछने पर वह कहती, ‘‘मां, आपातकाल में सभी ओर ऐसा ही वातावरण होगा ना ? इसलिए हमें घबराना नहीं चाहिए । इन सभी को (अन्य रोगियों को) हम नामजप करने के लिए कहेंगे ।’’ उसे कभी-कभी मेरे साथ अस्पताल में ही रुकना पडता था । ‘अस्पताल में रुकने पर वह कभी ऊब गई है’, ऐसा नहीं हुआ । वह वहां भी अपनी पढाई करती थी ।
४. विविध उपचार-पद्धतियां एवं सेवा सीखने में रुचि
४ अ. प्रथमोपचार सीखना
४ अ १. प्राथमिक उपचारवर्ग में सिखाए जानेवाले प्रात्यक्षिक एवं बताया जानेवाला विषय ध्यानपूर्वक सुनना : प्रथमोपचार वर्ग में सिखाए जानेवाले प्रात्यक्षिक स्वयं करके देखने की ओर उसका झुकाव रहता है । जब वह ६ – ७ वर्ष की थी, तब ‘ऑनलाइन’ प्राथमिक उपचारवर्ग लिए जाते थे । उस समय वह अवश्य उपस्थित रहती थी । प्राथमिक उपचार संबंधी दिखाई दी जानेवाली जानकारी पर चलचित्र (वीडियो) अथवा बताए जानेवाले सूत्र वह ध्यानपूर्वक सुनती थी ।
४ अ २. प्राथमिक उपचार अंतर्गत आनेवाली प्रत्यक्ष कृतियों की तैयारी कर लेना : प्रथमोपचार में ‘गॉज बैंडेज’ तैयार करना, त्रिकोणी पट्टी की सहायता से हाथ की ‘बैंडेज’ (हाथ की झोली) तैयार करना, सिर पर चोट लगने पर सिर की ‘बैंडेज’ तैयार करना, ‘स्ट्रेचर’ इत्यादि वह अच्छी तरह से बनाती है । सनातन के प्राथमिक उपचार विषय के सभी ग्रंथ उसने पढे हैं और उनका अध्ययन भी किया है ।
४ आ. बिंदुदाब उपचार-पद्धति जिज्ञासापूर्वक सीख लेना : वर्ष २०२० में बिंदुदाब उपचार के विषय में कुछ अभ्यासवर्ग लिए गए थे । प्रार्थना उस वर्ग में अवश्य बैठती थी । श्रीमती काव्या चेऊलकर ने यह बिंदुदाब सीखा था । उनके हमारे कक्ष में आने के उपरांत प्रार्थना उनसे प्रश्न पूछ-पूछकर बिंदुदाब का अभ्यास करती ।
४ इ. नई उपचार-पद्धति सीखना : उसका झुकाव नई उपचार-पद्धति को सीखने की ओर होता है । नाडी देखना, मर्दन (मालिश) करना, बीमार साधकों पर केंचुए के उपचार करना, ‘मैग्नेट थेरपी’ आदि उपचार उसने सीख लिए हैं । कोई भी नया सूत्र सीखने पर, वह तुरंत उसे अपनी बही में लिख लेती है ।
५. सेवा करते समय भाव रखना
५ अ. बीमार साधकों को औषधि पहुंचाते समय ‘साधकों को चैतन्य दे रही हूं । परात्पर गुरुदेव एवं भगवान कृष्ण का चैतन्य औषधियों में है’, ऐसा भाव रखना : प्रार्थना ‘बीमार साधकों को औषधि पहुंचाना और उन्हें छोटी पुडिया बनाकर देना’, यह सेवा करते समय वह ऐसा भाव रखती है कि ‘साधकों को चैतन्य दे रही हूं । परात्पर गुरुदेव एवं कृष्ण का चैतन्य इन औषधियों में है ।’ आयुर्वेदीय काढे, आयुर्वेदीय औषधियों की गंध, ‘एलोपैथी’ औषधियों के विषय में उसे कुछ अलग नहीं लगता । पुरानी औषधियों की बोतलें धोना और उन्हें स्वच्छ करके रखना इत्यादि सेवा करते समय वह बहुत उत्साही रहती है ।
एक बार वह मुझसे बोली, ‘‘मां, आपातकाल में ‘अन्नपूर्णाकक्ष एवं वैद्य साधकों की सेवा निश्चित रूप से चलती रहेगी ।’’
५ आ. बीमार व्यक्ति की सेवा करते समय ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की सेवा कर रही हूं’, ऐसा भाव रखना : ‘किसी भी बीमार व्यक्ति की सेवा करते समय उसका ऐसा भाव रहता है कि वह परात्पर गुरु डॉक्टरजी की सेवा कर रही है और उससे उसकी साधना हो रही है । मुझे विविध जांच के लिए अस्पताल जाना पडता था । तब भी वह कभी ऊबी नहीं और न ही कभी उसने साथ आने के लिए मना किया ।
६. गुणग्राहकता
प्रार्थना ने वैद्य साधकों द्वारा सीखने के लिए मिले सूत्र लिखकर दिए हैं । ‘इसी जन्म में आयुर्वेद की सेवा करने का अवसर मिले’, ऐसी प्रार्थना करनेवाली कु. प्रार्थना !
‘परात्पर गुरुदेवजी, क्या मुझे इसी जन्म में आयुर्वेद की सेवा करने का अवसर मिलेगा ? धन्वंतरि देवता की सेवा कर पाऊंगी न ? यह सेवा मैं सीख पाऊं’, ऐसी वह सतत प्रार्थना करती है ।’
– श्रीमती मनीषा पाठक (आध्यात्मिक स्तर ६८ प्रतिशत) (कु. प्रार्थना की मां), पुणे (५.१०.२०२१)