सरकारी नौकरी में अनुसूचित जाति-जनजाति के विषय में पदोन्नति का आरक्षण कैसा हो, यह राज्यों को ही तय करना चाहिए ! – उच्चतम न्यायालय 

संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेदकर ने आरक्षण केवल १० वर्षों तक चालू रखें’, ऐसी सूचना की थी; लेकिन यह आरक्षण संस्कृति आज भी चालू है । इसका सभी स्तर के घटकों द्वारा विचार करने का समय अब आ गया है ।  – संपादक

नई दिल्ली – सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति की पदोन्नती में आरक्षण के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकडों को तैयार करना यह राज्यों का दायित्व है । इसके लिए न्यायालय कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकती और पहले के निर्णयों के मापदंड को बदल नहीं सकती । ‘आरक्षण में अनुसूचित जाति-जनजाति को पदोन्नति दी जाएगी’, इस संबंध के निर्णय पर पुन: सुनवाई नहीं करेंगे । यह आरक्षण कैसा हो, यह राज्यों ने ही तय करना है, ऐसा निर्णय उच्चतम न्यायालय ने दिया है । ७ मई, २०२१ के दिन महाराष्ट्र सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण रद्द कर सेवा की ज्येष्ठता के अनुसार पदोन्नति देने का बडा निर्णय लिया था । इस संबंध में राज्य सरकार ने अध्यादेश भी निकाला था । इस अध्यादेश का तीव्र विरोध किया गया था । इसके विरोध में उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी । इस पर न्यायालय ने उपर्युक्त निर्णय दिया ।

उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एल.नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली खंडपीठ में सभी पक्षों की ओर से दलीलें प्रस्तुत की गई थीं । इस समय राज्य सरकारों की ओर से पक्ष रखे गए, तो केंद्र की ओर से अ‍ॅटर्नी जनरल ने दलील की थी । सभी दलीलों के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस विषय में २६ अक्टूबर, २०२१ को यह निर्णय रोककर रखा था । यह निर्णय २८ जनवरी के दिन दिया गया ।

क्या है विवाद ?

महाराष्ट्र में वर्ष २००४ में तत्कालीन काँग्रेस-राष्ट्रवादी काँग्रेस गठबंधन सरकार ने संविधान की धारा १६ (४) के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था होने वाला कानून पारित किया । इसके बाद १३ वर्ष यह कानून राज्य के सभी शासकीय-अर्धशासकीय कर्मचारियों पर लागू रहा; लेकिन ४ अगस्त, २०१७ के दिन मुंबई उच्च न्यायालय ने इस आरक्षण के संबंध में याचिका की सुनवाई के समय पदोन्नति में दिया जाने वाला ३३ प्रतिशत आरक्षण अवैध घोषित किया था । इसके बाद ७ मई ,२०२१ के दिन महाराष्ट्र सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण रद्दकर सेवा की ज्येष्ठतानुसार पदोन्नति देने का बडा निर्णय लिया था ।