सीधे ईश्वर से चैतन्य और मार्गदर्शन ग्रहण करने की क्षमता होने से, आगामी ईश्वरीय राज्य का संचालन करनेवाले सनातन संस्था के दैवी बालक !
लेखमाला : ‘सनातन के दैवी बालकों की अलौकिक गुणविशेषताएं’
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संकल्पानुसार आगामी कुछ वर्षाें में ईश्वरीय राज्य की स्थापना होनेवाली है । अनेकों के मन में प्रश्न होता है कि ‘इस राष्ट्र का संचालन कौन करेगा ?’ वर्तमान में मानव की सात्त्विकता अत्यल्प होने से उनमें इस राज्य को संभालने की क्षमता नहीं है; इसलिए ईश्वर ने उच्च लोक से कुछ हजार दैवी बालकों को पृथ्वी पर जन्म दिया है । उनके प्रगल्भ विचार और अलौकिक विशेषताएं इस स्तंभ में प्रकाशित कर रहे हैं ।
६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की कु. अपाला औंधकर (आयु १४ वर्ष) को हुई अनुभूति
१. देवताओं के तत्त्वानुसार शरीर पर विविध रंगों के दैवी कण मिलना
‘एक बार भगवान शिव के गीत पर आधारित नृत्य करने पर मेरे हाथ एवं तलवों पर सोनेरी और चंदेरी रंगों के दैवी कण मिलें । एक बार विष्णु के गीत पर आधारित नृत्य करने पर मोरपंखी और सोनेरी रंगों के दैवी कण मिले । उस विषय में गुरुदेवजी ने कहा, ‘‘देवताओं के तत्त्वानुसार हाथ और तलवों पर विविध रंगों के कण प्राप्त हुए’, यह दिव्य अनुभूति है ।’’
२. नृत्य का अभ्यास अथवा मुद्राभ्यास करने से पहले ‘भावप्रयोग’ करने का ध्यान में आया महत्त्व
मैं प्रतिदिन नृत्य का अभ्यास अथवा मुद्राभ्यास करने के पहले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के विषय में अथवा श्रीकृष्ण, शिव और अन्य देवताओं के विषय में एक भावप्रयोग करती हूं । तदुपरांत मैं अभ्यास करना आरंभ करती हूं । ‘मेरा भावप्रयोग जितना भावपूर्ण होता है, उतना अच्छा मेरा अभ्यास होता है तथा मुझे विविध दैवी अनुभूतियां आती है । मेरा भावप्रयोग भावपूर्ण न हुआ, तो उस दिन उसका परिणाम मेरे अभ्यास पर होता है । उस दिन मेरा अभ्यास अच्छा नहीं होता, साथ ही उस दिन मुझे विशेष अनुभूति भी नहीं आती । इससे ‘भावप्रयोग करना कितना महत्त्वपूर्ण है !’, यह मेरे ध्यान में आया । मैं ‘प्रतिदिन भावप्रयोग अधिकाधिक भावपूर्ण कैसे होगा !’, इसके लिए प्रयास करती हूं ।
३. ‘केवल महाविष्णुस्वरूप गुरुदेवजी के स्मरण से मनुष्य जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होता है’, ऐसा लगकर कृतज्ञता अनुभव होना
गुरुदेवजी का स्मरण करने के मेरे प्रयास अत्यधिक अल्प होते हैं । मेरे गुरु साक्षात् श्रीविष्णु ही है ।
‘यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ।।’ – श्रीविष्णुसहस्रनाम
अर्थ : ‘जिन भगवान विष्णु के केवल स्मरण से ही मनुष्य जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होता है, ऐसे श्रीविष्णु को मैं पुनः-पुन: नमस्कार करता हूं ।’
‘हमारे महाविष्णुस्वरूप गुरुदेवजी प्रत्येक क्षण साधकों का विचार करते हैं । महाविष्णु ही हमारा स्मरण करें, तो हम किसी भी माया के भवसागर में (जन्म-मृत्यु के बंधन में) नहीं फंसेंगे’, ऐसा लगकर मेरी गुरुदेवजी के चरणों में अत्यधिक कृतज्ञता व्यक्त हुई ।
४. टंकन की सेवा करते हुए टंकण की गति के विषय में प्रशंसा के विचार आना, तदुपरांत सेवा की गति अल्प होने का बोध होना और गुरुदेवजी से क्षमायाचना कर सेवा करने पर सेवा पहले की गति से होना
मैं दैवी बालसाधकों को होनेवाली अनुभूतियों का टंकण करने की सेवा करती हूं । इस कारण मेरी टंकण की गति बहुत बढ गई है । एक बार मेरे मन में एक क्षण ‘मैं अब अधिक गति से टंकण कर सकती हूं’, ऐसा प्रशंसा का विचार आया । दूसरे ही क्षण मेरी गति अपनेआप कम हुई । मेरे टंकण में शब्द गलत होने लगे । इसलिए अनुचित शब्द मिटाने के लिए मुझे ‘बैकस्पेस’ की निरंतर दबानी पड रही थी । उस समय मुझे बोध हुआ कि ‘भगवान हमारे मन के छोटे-छोटे अहं के विचार भी नष्ट करते हैं ।’ ‘साक्षात भगवान के कारण मैं सब कुछ करती हूं । यह देह भगवान का ही है, तब मेरे मन में प्रशंसा के विचार क्यों आए ?’, इसका चिंतन कर मैंने गुरुदेवजी से क्षमायाचना की । तदुपरांत मैंने उनसे प्रार्थना की, ‘हे भगवान, यह टंकण करनेवाली उंगलियां आप ही की हैं । मुझे मेरे अस्तित्व का विस्मरण कर सेवा करने दें ।’
उसके दूसरे ही क्षण पुन: मेरी टंकण की गति पहले समान हुई । तब ‘मेरा शरीर भगवान का ही है । मैं जो शारीरिक सेवा कर रही हूं, वह भगवान की कृपा से कर रही हूं । इसलिए ‘मन में अहं का कोई भी विचार न हो’, यह मुझे इस प्रसंग से सीखने के लिए मिला ।
५. नींद में ‘समय का सदुपयोग कर प्रत्येक क्षण आपको अपेक्षित ऐसी सेवा होने दें’, ऐसी गुरुदेवजी से प्रार्थना होना
२४.१०.२०२१ को सुबह नींद में मुझसे अपनेआप प्रार्थना हुई । ‘हे प.पू. गुरुदेवजी (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी), आपकी कृपा के कारण प्राप्त सुबह से रात तक का मेरा प्रत्येक क्षण आपका ही है ! मुझे समय का सदुपयोग कर प्रत्येक क्षण आपको अपेक्षित सेवा करने दीजिए’, ऐसी आपके सुकोमल चरणों में प्रार्थना है ।’
– कु. अपाला औंधकर (आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत), महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (११.१०.२०२१)
सनातन संस्था के दैवी बालक केवल ‘पंडित’ नहीं; अपितु ‘प्रगल्भ’ साधक हैं !सनातन संस्था में कुछ दैवी बालक हैं । उनका बोलना आध्यात्मिक स्तर का होता है । आध्यात्मिक विषय पर बोलते हुए उनके बोलने में ‘सगुण-निर्गुण’, ‘आनंद, चैतन्य, शांति’ जैसे शब्द होते हैं । ऐसे शब्द बोलने के पूर्व उन्हें रुककर विचार नहीं करना पडता । वे धाराप्रवाह बोलते हैं । उन्हें सुनते रहने का मन करता है । सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से किसी को ऐसे शब्दों का नियमित उपयोग करने हेतु इन विषयों से संबंधित निरंतर अध्ययन आवश्यक होता है । उस विषय का गहन अध्ययन किया, तो वे विषय बुद्धि से समझ में आते हैं और उनका आंकलन होता है । तदुपरांत ‘पांडित्य’ आने पर वे बोलते हैं; परंतु इन बालसाधकों की आयु केवल ८ से १५ वर्ष ही है । ग्रंथों का गहन अध्ययन तो क्या; उन्होंने कभी वाचन भी नहीं किया है । इसलिए उनकी यह परिभाषा उनके विगत जन्म की साधना के कारण उनमें निर्माण हुई प्रगल्भता दर्शाती है ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (२८.१०.२०२१) अभिभावको, दैवी बालकों को साधना में विरोध न करें, अपितु उनकी साधना की ओर ध्यान दें !‘कुछ दैवी बालकों का आध्यात्मिक स्तर इतना अच्छा होता है कि वे आयु के २० – २५ वें वर्ष में ही संत बन सकते हैं । कुछ माता-पिता ऐसे बालकों की पूर्णकालीन साधना को विरोध करते हैं और उन्हें माया की शिक्षा सिखाकर उनका जीवन व्यर्थ करते हैं । साधक को साधना में विरोध करने समान बडा दूसरा महापाप नहीं है । यह ध्यान में रखकर ऐसे माता-पिता ने बच्चों की साधना भलीभांति होने की ओर ध्यान दिया, तो माता-पिता की भी साधना होगी तथा वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होंगे !’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१८.५.२०१८) |