भगवान दत्तात्रेय द्वारा किए गए २४ गुणगुरुओं का भावार्थ !
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में यदु एवं अवधूत का संवाद है, जिसमें अवधूत बताते हैं कि उन्होंने किसे अपना गुरु माना और उनसे क्या बोध लिया । (यहां ‘गुरु’ शब्द का प्रयोग ‘शिक्षक’ के अर्थ से किया गया है ।) अवधूत कहते हैं, ‘जगत की प्रत्येक वस्तु ही गुरु है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है । बुराई से हम सीखते हैं कि कौनसे दुर्गुणों का परित्याग करना चाहिए एवं अच्छाई से यह शिक्षा मिलती है कि कौनसे सद्गुण अपनाएं । उदाहरण के रूप में आगे वर्णित २४ गुरुओं से थोडा-थोडा ज्ञान प्राप्त कर मैंने उसका सागर बनाया और उसमें स्नान करने से मेरे सर्व पाप नष्ट हो गए ।’
१. पृथ्वी
पृथ्वी समान सहनशील एवं द्वंद्वसहिष्णु होना चाहिए । क्षमाशीलता उत्तम मनुष्य का गुण : शिशु मां की गोदमें बैठता है, उसे लात मारता है, उसपर मल-मूत्र त्यागता है, तो भी वह बिना चिढे शिशु को दूध पिलाती है । उसी प्रकार, भूमि पर लोग मल-मूत्र का त्याग करते हैं, उसपर हल चलाते हैं, अग्नि से जलाते हैं, तो भी वह लोगों द्वारा बोए गए अन्न के दानों के अनेक गुना दाने उन्हें देती है । उसी प्रकार मनुष्य को अन्यों द्वारा दिए गए कष्ट को सहना चाहिए । किसी ने अपमान किया, अपशब्द कहा अथवा ठगा, तो भी उसपर क्रोध न कर सब सहते हुए उसे क्षमा कर उसकी सहायता ही करनी चाहिए ।
२. वायु
पवन पुष्पके संपर्क में आने पर उसकी सुगंध में आसक्त होकर वहां रुकता नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यसमान वस्तु पर मोहित होकर मनुष्य अपना कार्य न रोके ।
३. आकाश
आत्मा आकाश समान चराचर वस्तुओं में व्याप्त होते हुए भी आत्मा निर्विकार, एकमात्र, सभी से समत्व बनाए रखनेवाला, निःसंग, अभेद, निर्मल, निर्वैर, अलिप्त एवं अचल है ।
४. जल
मनुष्य ने जल की भांति, पक्षपात किए बिना सभी से स्नेहपूर्ण व्यवहार करे ।
५. अग्नि
मनुष्य अग्नि की भांति तप द्वारा प्रकाशित हो एवं जो भी मिले उसे ग्रहण कर अपने गुणों का आवश्यकतानुसार ही एवं उचित समय पर प्रयोग करे ।
६. चंद्र
अमावस्या की सूक्ष्म कला एवं अर्धमास की पंद्रह कलाओं को मिलाकर चंद्र की कुल सोलह कलाएं होती हैं । चंद्रकी कला घटती-बढती है, फिर भी इस विकार का चंद्रपर कोई प्रभाव नहीं पडता; उसी प्रकार आत्मा के लिए देहसंबंधी विकार बाधक नहीं होते । चंद्र अपनी शीतल किरणों से सबको आनंदित करता है, उसी प्रकार हमें अपनी मधुर वाणी से लोगों को आनंदित करना चाहिए ।’
७. सूर्य
सूर्य भविष्यकाल का विचार कर जल का संचय करता है एवं उचित समय पर परोपकार हेतु धरती पर वर्षा करता है । उसी प्रकार उपयुक्त वस्तुओं का संचय कर तथा देश, काल, वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मनुष्य निष्पक्षता से सर्व प्राणियों को उसका लाभ दिलवाएं ।
८. कपोत
जैसे बाज कपोत का (कबूतर का) उसके परिवार सहित भक्षण करता है, उसी प्रकार काल उस मनुष्य का भक्षण करता है जो स्त्री-पुत्रादि के प्रति आसक्त होकर संसार को सुखमय मानकर चलता है । इसी कारण इन सब के प्रति मुमुक्षु मन से निर्लिप्त रहे ।
९. अजगर
प्रारब्ध पर विश्वास रख अजगर एक ही स्थान पर निर्भय पडा रहता है और जिस समय जो कुछ मिले उसे ग्रहण कर संतुष्ट रहता है । उसी प्रकार मुमुक्षु प्रारब्ध पर पूर्ण विश्वास रख, जिस समय जो थोडा-बहुत मिले, उसे ग्रहण करें । किसी समय कुछ न भी मिले, तो स्वस्वरूप में लीन रहें ।
१०. समुद्र
समुद्र वर्षाकाल में अनेक नदियों का अपरिमित जल पाने पर सुखी नहीं होता एवं जल न मिलने पर दुःखी भी नहीं होता । उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य स्वधर्माधीन रहकर सुख उपभोगने का अवसर पाकर सुखी न हो और न ही निरंतर दुःख से दुःखी हो, अपितु सदैव आनंदित रहे ।
११. पतंगा
जलते दीपक की लौ से मोहित होकर पतंगा उसपर झपटकर जल जाता है । उसी प्रकार जो मनुष्य स्त्रीविलासी होता है, स्त्रीके सौंदर्य एवं युवावस्था से मोहित होता है, वह पतंगे के समान उसी में अपना विनाश कर लेता है ।
१२. मधुमक्खी
मधुमक्खी ऊंचे वृक्षों पर छत्ता बनाती है एवं उसमें मधु एकत्रित करती है । वह उस मधु को न तो स्वयं खाती है और न ही अन्य किसी को खाने देती है । अंत में मधु जमा करनेवाले मधुहे अचानक आकर, उसके प्राण लेकर, छत्तेसमेत मधु ले जाते हैं । उसी प्रकार जो कृपण महत्प्रयासों से द्रव्यार्जन कर उसका संग्रह करता है, वह संपत्ति के अग्नि, चोर अथवा राजा द्वारा अचानक हरण किए जाने पर दुःख पाता है ।
१३. गजेन्द्र (हाथी)
हाथी को वश में करने के लिए मनुष्य भूमि पर गड्ढा खोदकर उसपर काष्ठ की हथनी बनाकर उसे गजचर्म पहनाकर गड्ढे पर खडा कर देता है । उसे देखकर हाथी विषयसुख में रत होकर तीव्र गति से गड्ढे में गिर जाता है । उसी प्रकार, जो पुरुष स्त्रीसुख पाने के लिए भटकता है, वह बंधन में जकड जाता है ।
१४. भ्रमर
सूर्यास्त होते ही सूर्यविकासी कमल बंद कर लेते हैं । ऐसे में उसपर बैठा हुआ भ्रमर कमल के भीतर बंदी हो जाता है । इससे यह सीखकर कि विषयासक्ति से बंधनप्राप्ति होती है, विषयों के प्रति आसक्ति न रखें ।
१५. मृग
पवनसमान गति होने के कारण कस्तूरीमृग किसी के भी हाथ नहीं लगता; परंतु मधुर गायन के प्रति आसक्त होकर अपने प्राण पराधीन कर देता है । यह ध्यान में रखकर किसी भी प्रकार के मोह में न फंसें ।
१६. मछली
मछली मांस से मोहित होकर कांटे को निगल लेती है और कांटा गले में अटकने के कारण अपने प्राण गंवा देती है । उसी प्रकार जिह्वा के स्वाद में बद्ध हो जाने पर मनुष्य जन्म-मरणरूपी भंवर में गोते खाता रहता है ।
१७. पिंगला वेश्या
एक बार कोई न आने पर पिंगला वेश्या को अचानक वैराग्य आ गया । जब तक मनुष्य की इच्छाएं प्रबल रहती हैं, तब तक उसे सुखनिद्रा नहीं आती । जो पुरुष आशा को त्याग देता है, उसे इस संसार का कोई भी दुःख कष्ट नहीं देता ।
१८. टिटिहरी
टिटिहरी को अपनी चोंच में मछली लिए उडते देख कौए एवं चील उसके पीछे लग गए । अंत में उसने उस मछली को छोड दिया । तुरंत एक चील ने उस मछली को लपक लिया । यह देखते ही सारे कौए एवं चील उस मछली को ले जानेवाली चील के पीछे लग गए । निश्चिंत होकर टिटिहरी एक पेड की डाल पर शांति से जाकर बैठ गई । इस संसार में सर्व आसक्तियों के परित्याग में ही शांति है, अन्यथा घोर विपत्ति है ।
१९. बालक
मान-अपमान का विचार न कर जगत को प्रारब्धाधीन मानकर, सर्व चिंताओं का परिहार कर, बालक के समान रहें और आनंद लें ।
२०. कंगन
दो कंगनों के आपस में टकराने से ध्वनि उत्पन्न होती है । उसी प्रकार एक स्थान पर अनेक व्यक्ति साथ रहते हों, तो वहां कलह होती है । इसी कारण ध्यान-योगादि करनेवाला व्यक्ति निर्जन प्रदेश ढूंढकर वहां एकांत में रहे ।
२१. बाण बनानेवाला शिल्पी (शरकर्ता)
शिल्पी स्वयं के काम में इतना एकाग्र था कि उसके बाजू से राजा की यात्रा (सवारी) जाने पर भी ध्यान नहीं गया । इस शिल्पी के समान मुमुक्षु अपनी सर्व इंद्रियों को ईश्वर के चरणों में लीन कर ध्यान करे ।
२२. सर्प
दो सर्प कभी भी एक साथ नहीं रहते अथवा साथ में विचरण नहीं करते । उसी प्रकार दो बुद्धिमान व्यक्ति कभी एक साथ भ्रमण न करें ।
२३. मकडी
जिस प्रकार मकडी तंतु से घर बना सकती है, उसी प्रकार ईश्वर इच्छामात्र से चराचर जगत उत्पन्न कर उसका अपनेआप में ही लय कर, पुनः इच्छा होने पर पूर्ववत निर्मिति करते हैं । अतएव जगत में हो रही घटनाओं को महत्त्व न दें ।
२४. ततैया
कोई प्राणी जब सदैव किसी का ध्यान करता है, तो वह परिणामस्वरूप तदाकार हो जाता है । ततैया मिट्टी से घर बनाकर उसमें एक कीट लाकर रखता है एवं उसपर फूंक मारता रहता है । इससे उस कीट को ततैये का सदैव ध्यान लगा रहता है और वह भी अंत में ततैया बन जाता है । उसी प्रकार मुमुक्षु गुरु द्वारा बताए मार्ग से ईश्वर का ध्यान करे; इससे वह ईश्वरस्वरूप हो जाएगा ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘भगवान दत्तात्रेय’)