अभ्यंगस्नान करने से होनेवाले सूक्ष्म परिणाम और लाभ दर्शानेवाला सूक्ष्म चित्र !
दीपावली के तीन दिनों पर अभ्यंगस्नान करते हैं । अभ्यंगस्नान अर्थात सुबह उठकर सिर और शरीर पर तेल एवं उबटन लगाना, तदुपरांत गुनगुने पानी से स्नान करना । अभ्यंगस्नान के कारण रज-तम गुण एक लक्षांश अल्प होकर उसी मात्रा में सत्त्वगुण में वृद्धि होती है और उनका प्रभाव सदैव के स्नान की तुलना में अधिक होता है । यहां अभ्यंगस्नान करने के कारण होनेवाले परिणाम और लाभ का विश्लेषण एवं सूक्ष्म चित्र प्रस्तुत है ।
नरक चतुर्दशी के दिन अभ्यंगस्नान करना
कृति : ‘व्यक्ति को प्रथम कुमकुम का तिलक लगाया जाता है । फिर उसके शरीर के ऊपरी भाग से निचले भाग तक तेल लगाया जाता है । तदुपरांत तेल और उबटन का मिश्रण एकत्रित कर शरीर पर लगाया जाता है । तदुपरांत उसकी आरती उतारी जाती है । इसके उपरांत दो लोटे उष्ण (गरम) पानी उसके शरीर पर डालने के उपरांत मंत्र का उच्चारण करते हुए अपामार्ग अथवा चकवड की टहनी तीन बार घुमाते हैं ।
१. शरीर को उबटन लगाने से होनेवाले लाभ
१ अ. भाव : अन्यों के द्वारा भावपूर्ण उबटन लगाने के कारण उबटन लगवानेवाले की देह में भाव का वलय निर्माण होता है ।
१ आ. शक्ति : तेलमिश्रित उबटन लगाने के कारण तेजतत्त्व स्वरूप शक्ति का प्रवाह व्यक्ति की ओर आकृष्ट होता है ।
१ इ. कष्टदायक शक्ति : बलवान आसुरी शक्ति द्वारा देह में निर्मित कष्टदायक शक्ति का विघटन होता है और कष्टदायक आवरण दूर होता है ।
२. उबटन लगाकर स्नान करना
अ. उबटन लगाने के उपरांत २ लोटे उष्ण (गरम) पानी शरीर पर डालने के उपरांत अपामार्ग अथवा चकवड की टहनी देह के आस-पास घुमाने से देह के आस-पास सुरक्षा-कवच निर्माण होता है ।
आ. स्नान करते हुए देह में ईश्वरीय तत्त्व एवं आनंद का प्रवाह आकृष्ट होता है और देह में वलय निर्माण होते हैं ।
इ. ईश्वर द्वारा चैतन्य का प्रवाह स्नान के पानी में आकृष्ट होता है ।
अन्य सूत्र
१. ‘प्रथम शरीर को तेल लगाने के कारण त्वचा के रोमों से शक्ति के कण देह में फैलते हैं ।
२. देह को तेलमिश्रित उबटन लगाने के कारण देह में शक्ति के स्पंदन अधिक मात्रा में निर्माण होते है तथा अभ्यंगस्नान करते हुए चैतन्य के स्पंदन अधिक मात्रा में निर्माण होते हैं और वे वातावरण में प्रक्षेपित होते हैं ।
३. नियमित स्नान की तुलना में नरक चतुर्दशी के दिन अभ्यंगस्नान करने से ५ प्रतिशत अधिक लाभ होता है व उपरोक्त स्पंदन अधिक काल देह में रहते हैं ।’
– कु. प्रियांका लोटलीकर, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा.
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