चार पुरुषार्थ एवं पुरुषार्थ का महत्त्व
अध्यात्मविषयक बोधप्रद ज्ञानामृत…
।। श्रीकृष्णाय नमः ।।
१. चार पुरुषार्थ
धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको शास्त्र में ‘चार पुरुषार्थ’ कहा गया है ।
१ अ. धर्म एवं मोक्ष : धर्म और मोक्षमें स्वयंका पराक्रम, प्रयास, कर्तृत्व, अर्थात् पुरुषार्थ मुख्य है और प्रारब्ध गौण है । धर्माचरण तथा मोक्षप्राप्ति दैवसे, प्रारब्धसे नहीं होती; यह पूरे निर्धारसे स्वयं ही करना पडता है ।
१ आ. अर्थ एवं काम : अर्थ एवं कामकी प्राप्ति मुख्यत: प्रारब्धपर निर्भर रहती है, पुरुषार्थ गौण होता है । तो भी मनुष्य अपने पुरुषार्थसे प्रारब्धको पछाडकर कुछ सीमातक अर्थ और काम प्राप्त कर सकता है, इसलिये अर्थ तथा कामकी भी पुरुषार्थमें गणना होती है ।
२. प्रयत्नों से योग्य पुरुषार्थ करते रहना : कार्यसिद्धिके लिये जितने हो सके, उतने पूरे प्रयास करने चाहिये । ‘मेरे भाग्य में ही नहीं’ ऐसा कहकर धीर नहीं खोना है । पुरुषार्थ पर ही निर्भर रहे, दैवपर नहीं । दैव अब अपने हाथमें नहीं, किंतु पुरुषार्थ अपने हाथकी बात है ।
योगवासिष्ठ ग्रंथमें ऐसा आया है कि वसिष्ठमुनि श्रीरामको बताते हैं –
‘तावत्तावत्प्रयत्नेन यतितव्यं सुपौरुषम् ।
प्राक्तनं पौरुषं यावदशुभं शाम्यति स्वयम् ।।’
– योगवासिष्ठ, वैराग्यप्रकरणम्, सर्ग ५, श्लोक ११
अर्थ : ‘जब तक पहिलेके पुरुषार्थसे बना अशुभ भाग्य नष्ट नहीं हो जाता, तबतक स्वयं प्रयत्नसे योग्य पुरुषार्थ करते रहना चाहिये ।’
– अनंत आठवले (२८.४.२०२१)
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।
[संदर्भ : सनातन संस्था द्वारा प्रकाशित ‘पू. अनंत आठवलेजी लिखित मराठी ग्रंथ ‘अध्यात्मशास्त्राच्या विविध अंगांचा बोध’ (अर्थात ‘अध्यात्मशास्त्रके विविध अंगोंका बोध’) से]
लेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून (कम) न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया है । – संकलनकर्ता |