सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?
पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का दृढ आधार होना, मानवीय जीवन के बंधन से मुक्ति मिलने हेतु शिक्षा चाहिए एवं आधुनिक मान्यता तथा दोष के विषय में जानकारी पढी । आज उसके आगे का लेख देखेंगे । (भाग ५)
२ इ. विशेष सूत्र
२ इ १. इस ग्रंथ में प्रस्तुत की हुई विविध मान्यताओं के संदर्भ में दोष वर्तमान की वास्तविकता होना : ‘सूत्र २ आ.’ में विभिन्न मान्यताओं पर जिन दोषों पर विचार किया गया है वे काल्पनिक नहीं हैं, आधुनिक वास्तविकताएं हैं जो सभी प्रचलित प्रसारमाध्यमों द्वारा स्पष्ट रूप से घटित होती हुई दिखलाई जाती हैं या बताई जाती हैं । बहुत से लोगों ने इन्हें स्वयं प्रत्यक्ष रूप से देखा है तथा इनकी सत्यता को निर्धारित किया । कोई-कोई आधुनिक घटनाएं ऐसी अनैतिक एवं निकृष्ट हो रही हैं जिनकी साधारणतया कल्पना करना भी कठिन हो जाता है ।
२ इ २. भौतिक साधनसुविधा अखंड सुख न देते हुए क्षणभंगुर सुख देती हैं और अपनी स्वाभाविक इच्छा ‘अखंड सुख (आनंद) मिले’, होने से भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से बारंबार आनेवाला सुख भी अंत में दुःखरूप ही होता है : ‘सूत्र २ आ.’ के शीर्षक में हमने ‘दोष’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘गुण-दोष’ शब्द का नहीं । इसलिए आधुनिक व्यक्ति में यह विचार भी आ सकता है कि भोगवादी मान्यताओं से प्रेरित आधुनिक सभ्यता में कुछ गुण भी तो होते हैं, जैसे भौतिक उपकरणों का आविष्कार तथा उनके द्वारा दैनिक जीवन को सरल व सुखी बनाना और भौतिक समृद्धि प्रदान करना । यह बात भौतिक दृष्टिकोण या स्थूल रूप से सत्य है; परंतु हमने इस ग्रंथ में विचारों तक को भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण रखकर प्रस्तुत किया है । यह दृष्टिकोण विशाल होते हुए भी सूक्ष्म तथा गूढ है । भौतिक संसाधन क्षणिक (अस्थायी) सुख देते हैं, बार-बार आने-जानेवाले सुख-दुःख देते रहते हैं, अखंड सुख इनसे कभी नहीं मिलता । भौतिक संसाधन हमें मोहित करते हैं, आसक्ति बढाते हैं । हमारी यह आसक्ति इतनी बढ जाती है कि हमारा इनसे बाहर निकलना असंभव सा हो जाता है और इसी सुख-दुःख को हम मानव जीवन का अभिन्न अंग समझ लेते हैं । थोडा विचार करके देखे तो पाएंगे कि हमारी स्वाभाविक मांग अखंड सुख (अखंड आनंद) है । अतः भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से ये बारंबार आनेवाला सुख भी दुःखरूप है, इसमें तमस मिला रहता है (देखिए खंड ७.२) । इसीलिए हमने ‘सूत्र २ आ.’ के शीर्षक में ‘गुण-दोष’ शब्द का प्रयोग न कर केवल ‘दोष’ शब्द का प्रयोग किया है ।
२ इ ३. भौतिक शिक्षा में सुधार करने की आवश्यकता : आधुनिक समय में भौतिक पदार्थों को भोगने के प्रति मनुष्य की आसक्ति इतनी बढ गई है कि आधुनिक विद्वानों का भी विचारतंत्र इससे बाहर नहीं निकल पाता । यह भयंकर स्थिति उत्पन्न कर रहा । एक भयावह स्थिति यह है कि हम सभी स्पष्ट देख रहे हैं कि मानवीय जीवन कदाचार की ओर बढता ही चला जा रहा है, किंतु इसे रोकने के लिये शिक्षा में क्या सुधार किए जाएं, इसे यथार्थ रूप में नहीं सोच पा रहे हैं । आधुनिक शिक्षा के कर्णधार एवं आधुनिक विद्वान या वैज्ञानिक भी असमर्थ हैं । इस स्थिति से तभी बाहर निकला जा सकता है, जब भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिपादित विचारधाराओं पर श्रद्धा रखेंगे, उन्हें समझने का प्रयत्न करेंगे तथा उन्हें कार्यान्वित करेंगे ।’
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा
(साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’) (क्रमशः)