भक्त, संत और ईश्वरमें भेद !
।। श्रीकृष्णाय नमः ।।
प्रश्न : श्रेष्ठ भक्त, संत और ईश्वर एक ही होते हैं अथवा उनमें कोई भेद है ?
उत्तर :
१. ज्ञानी भक्तकी आत्मा और ईश्वरमें स्वरूपभेद न होनेपर भी स्थूल और सूक्ष्म देह रहनेतक शरीरस्थ आत्मा ईश्वरसे सर्वार्थसे एकरूप न होना : भगवान् श्रीकृष्णने भगवद्गीतामें (अध्याय ७, श्लोक १६, १७ एवं १८ में) भक्तों के चार प्रकार बताकर उनमेंसे ‘ज्ञानी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मैं मानता हूं’, ऐसा कहा है । अर्थात्, पूर्ण चित्तशुद्धि होकर आत्मस्वरूपकी अनुभूति प्राप्त ज्ञानी भक्त और ईश्वरमें तत्त्वत: कोई भेद नहीं रहता । किंतु स्थूल और सूक्ष्म देहमें रहते पूर्ण अद्वय नहीं होता । शास्त्रोक्त उदाहरणसे यह स्पष्ट होगा । एक खाली घट है, उसपर ढक्कन रखा है । उस घटके भीतरकी वायु और बाहरकी वायुके स्वरूपमें कोई भेद नहीं होता । तो भी वायुके घटमें रहनेतक वह आकाशस्थ वायुसे एकरूप नहीं हो सकती । उसी प्रकार ज्ञानी भक्तकी आत्मा और ईश्वरमें स्वरूपभेद न होते हुवे भी स्थूल और सूक्ष्म देहमें रहते शरीरस्थ आत्मा ईश्वर से सर्वार्थसे एकरूप नहीं होती ।
२. स्थूल और सूक्ष्म देहमें रहनेतक मनुष्य ईश्वर न बनकर ईश्वरका अंश ही रहना : मनुष्य ईश्वरका कितना भी अनन्य भक्त हो, वह ईश्वर नहीं बन सकता; वह स्थूल और सूक्ष्म देहमें रहनेतक ईश्वर का अंश ही रहता है । वह सारे स्थूल और सूक्ष्म विश्वको ईश्वर जैसे व्याप नहीं सकता । ईश्वरकी सभी अलौकिक शक्तियां उसमें नहीं आतीं । वह बहुत बडा महात्मा बन सकता है, किंतु ईश्वर ही नहीं बन सकता । ब्रह्मलीन रामसुखदासजी महाराजने एक लेखमें लिखा है कि मनुष्यमें सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और लय करनेकी ईश्वरीय सामर्थ्य नहीं आती ।
३. आत्मा देहमें रहनेतक आत्मा ही होगी, ईश्वर नहीं ! : हमारी आत्मा और ईश्वरमें मूलत: भेद न होनेपर भी वह देहमें रहनेतक आत्मा ही होगी, ईश्वर नहीं । आद्य शंकराचार्यजीका एक बहुत सुंदर और उद्बोधक श्लोक है,
‘सत्यापि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ।
सामुद्रो हि तरङ्ग: क्वचन समुद्रो न तारङ्ग:।।
– विष्णुषट्पदी, श्लोक ३
अर्थ : ‘नाथ ! आपमें और मुझमें भेद नहीं रहा, यह सत्य होनेपर भी मैं आपका हूं, आप मेरे (अंश) नहीं । तरंग समुद्रका होता है, समुद्र कभी भी तरंगका नहीं होता ।’ तरंगरूप देह होनेतक उसका जल समुद्रका अंश ही रहेगा ।’ – अनंत आठवले, गोवा (२७.४.२०२१)
(संदर्भ : आगामी कालमें प्रकाशित होनेवाला ग्रंथ)
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।
सूक्ष्म : व्यक्ति का स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीव्हा एवं त्वचा यह पंचज्ञानेंद्रिय है । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है । |