कर्करोग जैसी दुःसाध्य बीमारी में भी गुरुदेवजी के प्रति दृढ श्रद्धा के कारण आनंदित रहकर बीमारी का सामना करनेवाले पू. डॉ. नंदकिशोर वेदजी !

पू. डॉ. नंदकिशोर वेदजी

पू. डॉ. नंदकिशोर वेदजी को रक्त का कर्करोग है, यह पता चलने पर भी वे गुरुदेवजी के प्रति दृढ श्रद्धा के कारण स्थिर रह पाए । इस दुःसाध्य बीमारी में भी उन्होंने भावजागृति के प्रयास किए । इस कारण वे आनंदित एवं भावस्थिति में रह पाए । इस लेख से पाठक सीख पाएंगे कि ‘गुरुकृपा से असहनीय पीडा पर विजय प्राप्त कर आनंदित कैसे रहना चाहिए ?’ (भाग १)

१. अकस्मात ही कमर में असहनीय पीडा होना, डॉक्टरों को दिखाने पर उसका कारण उनके ध्यान में न आना और अधिक मात्रा में पीडाहारी औषधियां लेने से पेट का भी बहुत कष्ट आरंभ होना
‘१०.११.२०१९ को अधिक मात्रा में सेवा व शारीरिक परिश्रम होने के कारण मेरी कमर में पीडा होने लगी । मैंने इस संदर्भ में डॉक्टर से संपर्क किया; परंतु उनके ध्यान में कुछ नहीं आ रहा था अथवा वे मेरी इस बीमारी का अनुमान लगाने में रुचि नहीं ले रहे थे । वे प्रत्येक बार औषधियां दे रहे थे । अधिक मात्रा में पीडाहारी औषधियां लेने से मुझे पेट का भी बहुत कष्ट होने लगा ।

२. अनाहतचक्र के सबसे पिछले बिंदु पर अत्यंत तीव्र और अहसनीय पीडा होना, आध्यात्मिक उपचार करने पर उनका न्यून होना व इससे चिकित्साशास्त्र की मर्यादाएं और ‘अध्यात्मशास्त्र एवं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा समय-समय पर बताए उपचारों का महत्त्व’ ध्यान में आना

‘अनाहतचक्र के सबसे पिछले बिंदु पर किसी कुंद वस्तु से बहुत दबाया जा रहा है’, ऐसा मुझे लग रहा था । बीच-बीच में यह वेदना अत्यंत तीव्र एवं असह्य हो जाती । अधिकांशतः रात को सोने के उपरांत ही यह पीडा आरंभ होती थी, तब मैं उठकर उदबत्ती (अगरबत्ती) से मेरे चारों ओर का आवरण निकालता था । श्री बगलामुखी स्तोत्र, देवीकवच और श्रीरामकवच सुनता था । नामजप, प्रार्थना और आत्मनिवेदन करता था और उसके साथ ‘इलेक्ट्रिक हीटिंग पैड’ से सेंक लेता था । आरंभ में मैं काले तिल और नींबू से कुदृष्टि निकालता था । ‘हं’ बीजाक्षर का जाप करता
था । धनुर्धरीदेवी से प्रार्थना और सवेरे, दोपहर और सायंकाल में ‘श्री धनुर्धरीदेव्यै नमः’ नामजप करता था । तब जाकर रात ३ बजे पीडा न्यून होती और मैं सो पाता । इससे चिकित्साशास्त्र की मर्यादा और ‘अध्यात्मशास्त्र एवं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा समय-समय पर बताए उपचारों का महत्त्व’ मेरे ध्यान में आया ।

३. समाज में निहित डॉक्टरों के व्यावसायिक एवं मानवताशून्य दृष्टिकोण का अनुभव होना

मैंने एक डॉक्टर से मुझे होनेवाली अतितीव्र पीडा के संदर्भ में बताया । तब उन्होंने कहा, ‘‘जिस पीडा का कारण समझ में नहीं आ रहा हो, उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए । मैं आपको औषधियां देता हूं, आप उन्हें लेते रहिए, बस्स !’’ इससे मेरे ध्यान में आया कि समाज में निहित डॉक्टर अपनी व्यावसायिक कुशलता बढाने की अपेक्षा ‘मैं और अधिक धन कैसे अर्जित करूं ?, मेरा चिकित्सालय कैसे बडा बनाऊं ?’ इसपर ही ध्यान केंद्रित करते हैं । ‘रोगी अपने हाथ से निकल न जाए, इसके लिए वे रोगी को आगे विशेषज्ञ के पास भी नहीं भेजते ।’

३ अ. समाज में निहित साधना न करनेवाले डॉक्टरों और साधना के रूप में चिकित्सा करनेवाले साधक डॉक्टरों के बीच का ध्यान में आया हुआ अंतर ! : रामनाथी आश्रम के डॉ. पांडुरंग मराठे के परामर्श के अनुसार मैं लखनऊ जाकर ‘एमआरआई’, पेट का ‘अल्ट्रासाउंड’ और हृदय की ‘इको टेस्ट’ करवाई । दूसरे दिन मैंने वहां के एक ‘न्यूरो सर्जन’ और एक अस्थिरोग शल्यविशेषज्ञ (ऑर्थोपेडिक सर्जन) को दिखाया ।
उन्होंने मेरी बीमारी का निष्कर्ष ‘ऐंकीलोजिंग स्पौंडिलाइटिस (Ankylosing Spondylitis)’ निकाला और बताया कि ‘इस बीमारी का कोई उपाय नहीं है ।’ यह बात मैंने जब डॉ. मराठे को बताई, तब उन्होंने कहा, ‘‘इसका कोई भी उपाय नहीं है, ऐसा नहीं है । आप गोवा आइए ।’’ पू. नीलेश सिंगबाळजी ने भी मुझे तुरंत गोवा जाने के लिए कहा । उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के विशेषज्ञ डॉक्टरों को यह ज्ञात नहीं था कि ‘ऐंकीलोजिंग स्पौंडिलाइटिस’ की औषधि २ वर्ष पूर्व ही बाजार में आ गई है । इससे समाज में निहित साधना न करनेवाले डॉक्टर और साधना के रूप में चिकित्सा करनेवाले साधक डॉक्टर के बीच का अंतर मेरे ध्यान में आया ।

३ आ. साधक डॉ. मराठे के बताए अनुसार अनावश्यक औषधियां बंद करने से उदरशूल और अन्य पीडा भी न्यून होना : डॉ. मराठे कोई व्यावसायी डॉक्टर नहीं हैं । वे आश्रम में अपनी साधना के रूप में बीमार साधकों की चिकित्सा की सेवा करते हैं । वे कोई विशेषज्ञ डॉक्टर भी नहीं हैं, तब भी उनसे मुझे अचूक निर्णय मिला । अधिक मात्रा में पीडाहारी औषधियां लेने से मेरे पेट में बहुत पीडा हो रही थी । डॉ. मराठे ने अयोध्या एवं लखनऊ के डॉक्टरों द्वारा दी अनावश्यक औषधियां बंद कर उनकी मात्रा संतुलित करने से मेरा उदरशूल ही नहीं, अपितु अन्य पीडाएं भी न्यून हुईं ।

४. रामनाथी आश्रम में स्थित चैतन्य के कारण रात में पीडा न होना और शांत नींद आना : मैं १०.१२.२०१९ को रात ११.३० बजे रामनाथी आश्रम पहुंचा । रात में सोने के उपरांत मैं सवेरे ही जग गया । तब मेरे ध्यान में आया कि ‘रात को नियमित रूप से होनेवाली पीडा आज मुझे हुई ही नहीं ।’ वहां रात को मुझे नींद में आनेवाली समस्या और तीव्र पीडा का सामना करना पडता था, वह मुझे यहां आने से लेकर आज तक नहीं करना पडा । इससे मुझे आश्रम के चैतन्य का महत्त्व ध्यान में आया ।

५. तीव्र पीडा होने पर मन का व्याकुल होना और परात्पर गुरु डॉक्टरजी का स्मरण एवं आत्मनिवेदन करने पर मन शांत और स्थिर होना
अयोध्या में आत्यंतिक पीडा से बीच-बीच में मन बहुत निराश होता था । मन को यह अवगत ही था कि परात्पर गुरु डॉक्टरजी मुझे प्रारब्धभोग भोगने की शक्ति दे रहे हैं; परंतु पीडा की मात्रा अधिक होने पर और लंबे समय तक पीडा होने से बीच-बीच में मन व्याकुल होता था । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी का स्मरण और उनसे आत्मनिवेदन करने से मन शांत और स्थिर हो जाता था ।

६. रक्त का कर्करोग होने का निष्कर्ष मिलने पर ‘ईश्वर ही इस बीमारी को भोगने की शक्ति देनेवाले हैं’, इस दृढ श्रद्धा के साथ स्थिर रहना संभव होना
आगे जाकर गोवा में आधुनिक वैद्यों द्वारा रक्त का परीक्षण करने पर उसमें मुझे रक्त का कर्करोग (blood cancer) होने का निष्कर्ष निकला । तब मुझे बहुत दुःख अथवा चिंता नहीं हुई । मैं स्थिर रह पाया । तब मुझे परात्पर गुरु डॉक्टरजी के शब्दों का स्मरण हुआ, ‘प्रारब्धभोग भोगकर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होना है ।’ ‘ईश्वर ही इस बीमारी को भोगने की शक्ति प्रदान करनेवाले हैं । उन्होंने आज तक जिस प्रकार से मेरा पालन किया है, वैसे ही वे आगे भी मेरा पालन करेंगे ।’ मुझ में यह श्रद्धा दृढ होकर मैं स्थिर रह सका ।

७. हाथ में सुई लगाते समय भावार्चना करने से अत्यल्प वेदना होना एवं भावविश्व में रहने से भावावस्था एवं आनंद अनुभव करना
मेरी चिकित्सा कर रहे डॉक्टरों ने बताया, ‘४.१.२०२० को मेरी पहली किमोथेरपी (कर्करोग पर किए जानेवाले विशिष्ट उपचार, जिसके अनेक दुष्परिणाम होते हैं व उससे पीडा भी होती है ।) होगी । उससे पूर्व २२.१२.२०१९ को हाथ में सुई लगाते समय मुझे बहुत पीडा हुई थी; इसलिए २६.१२.२०१९ को पुनः सुई लगाते समय परात्पर गुरुदेवजी से प्रार्थना कर पीडा सहन होने हेतु शक्ति मिले; इसके लिए मैंने यह भावार्चना की कि मैंने दौडते हुए जाकर परात्पर गुरुदेवजी के चरण पकड लिए हैं । उसी समय परिचारिका ने सुई लगाकर उसे हिलाकर नस में स्थिर किया । मुझे इस संपूर्ण प्रक्रिया का भान हो रहा था; परंतु उसके कारण होनेवाली पीडा नहीं हुई । उसके उपरांत मेरे दोनों हाथ, कलाई, तलुवे के पीछे, हाथ के मध्य में, हाथ के ऊपरी भाग पर और पेट में अनेक सुईयां चुभाई गईं; परंतु इसी भावार्चना के कारण मुझे पीडा नहीं हुई अथवा हुईं तो भी अत्यल्प मात्रा में हुईं और मेरे भावविश्व में रहने के कारण मैं भावावस्था और आनंद अनुभव कर रहा था ।

८. डॉक्टरों द्वारा किमोथेरपी के संदर्भ का शास्त्र आध्यात्मिक भाषा में समझाना और उसके कारण पीडा के संदर्भ में प्रतीत होनेवाला भय दूर होना
मेरी चिकित्सा करनेवाले डॉक्टर वैद्यकशास्त्र में उच्चशिक्षित और प्रशिक्षित हैं, साथ ही वे युवा, शक्तिशाली और मृदूभाषी हैं । एक बार प्रशांत (मेरे जमाई) ने उनसे पूछा, ‘‘आप ऐसे रोगियों की चिकित्सा के लिए किमो देते हैं; परंतु उससे रोगी को पीडा और अन्य कष्ट क्यों होते हैं ?’’ उन्होंने बताया, ‘‘हम जो किमो देते हैं, उसे पांडव समझिए और रोगी की देह में जो कर्करोग के विषाणु उत्पन्न हुए हैं, उन्हें कौरव समझिए । जब किमो शरीर में पहुंचता है, तब उन दोनों में युद्ध होता है और यह युद्ध कुरुक्षेत्र में होता है; इसलिए युद्ध से होनेवाले कष्ट कुरुक्षेत्र को ही सहन करने पडते हैं । किमो और कर्करोग के विषाणुओं के बीच युद्ध में रोगी की देह ही कुरुक्षेत्र बन जाती है ।’’ उनका यह उत्तर सुनकर पहले तो ‘मुझे अधिक पीडा हो रही है’, यह विचार कर भय लगा; परंतु तुरंत ध्यान में आया कि ‘कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण सदैव रहते थे । वहीं उन्होंने अर्जुन को अपना विराट रूप भी दिखाया था । ‘तो जहां श्रीकृष्णजी हैं, वहां भय किस बात का ?’ केवल इसी विचार से पीडा के प्रति मेरा भय दूर हुआ ।’

९. ‘किमोथेरपी’ के कारण प्राप्त अनुभूतियां

९ अ. डॉक्टरों द्वारा पहला किमो देने की बात कहकर प्रार्थना करने के लिए कहने से भावजागृति होना : ‘किमोथेरपी’ से एक दिन पहले उसकी तैयारी पूर्ण होने के उपरांत डॉक्टर ने मेरे सिरहाने के पास रखे हुए ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का छायाचित्रमय जीवनदर्शन’ ग्रंथ की ओर (इस ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का छायाचित्र है ।) देखते हुए कहा, ‘‘आज हम आपको पहला किमो देनेवाले हैं । आप सभी प्रार्थना करें ।’’ उनके ये शब्द सुनते ही मेरी बहुत भावजागृति हुई और कृतज्ञता प्रतीत हुई ।

९ आ. ‘किमोथेरपी’ के समय भावविश्व में रहने से पीडारहित व आनंद की स्थिति में रहना संभव होना और समय का पता ही न चलना : ‘किमोथेरपी’ आरंभ हो चुकी थी; परंतु मुझे वह केवल चींटी के काटने जैसा ही प्रतीत हो रही थी । भावविश्व में होने के कारण उसका मुझ पर कोई परिणाम नहीं हो रहा था । मानो मैं आनंदसागर में तैर रहा था । मेरी आंखों से भावाश्रु बह रहे थे । परात्पर गुरुदेव निरंतर मेरे मस्तक पर हाथ घुमा रहे थे । बीच में एक-दो बार परिचारिका के कुछ पूछने पर मेरी समाधि भंग हुई । उनकी बातें रुकते ही मैंने अधिक प्रयास न कर पुनः भावविश्व में प्रवेश किया । उसमें मैने परात्पर गुरुदेवजी के चरण पकड रखे थे । डेढ घंटे तक किमो चल रहा था और मैं भावविश्व में पीडारहित और आनंद की स्थिति में रहा । तब मुझे कृतज्ञता गीत में निहित शब्दों का स्मरण हो रहा था । ‘समय कैसे बीत गया ?’, यह समझ में भी नहीं आया । (क्रमश:)