मंदिर के पुजारी !
रत एक धर्मनिरपेक्ष देश है; परंतु ऐसा होते हुए भी यह धर्मनिरपेक्षता केवल हिन्दुओं के संदर्भ में ही दिखाई देती है और अन्य धर्मीय लोग उनके धर्म के अनुसार कट्टरता से आचरण करते हुए दिखाई देते हैं । सरकार और प्रशासन भी उनके सामने घुटने टेकते हुए दिखाई देते हैं । देश में हिन्दू भले ही बहुसंख्यक हों; परंतु विगत ७४ वर्षों से उन्हें धर्मनिरपेक्षता की गोली खिलाकर निद्रावस्था में रखा गया है । जिन्हें हिन्दुओं को जगाकर उनमें धर्मप्रेम और धर्म के प्रति गर्व जगाना चाहिए, वे भी छद्म धर्मनिरपेक्षता के अधीन होकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने का प्रयास कर रहे हैं । इस पृष्ठभूमि पर कोई यदि हिन्दुओं को जागृत कर कट्टरता से नहीं, अपितु गर्व के साथ हिन्दू धर्म के अनुसार आचरण और उसका पालन करने की मांग कर रहा हो, तो उस पर ‘सनातनी’, ‘फैसिस्ट’, ‘हिन्दू तालिबानी’ जैसे लेबल चिपकाकर मिटाने का प्रयास किया जाता है । हिन्दुओं पर हो रहे आघातों के विरोध में छोटे-मोटे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन संघर्ष करने का प्रयास कर रहे हैं । केंद्र की सरकार राजनीतिक स्थिति को देखकर उसे बल दे रही है । भले ही यह स्थिति हो; परंतु धर्म एवं धर्मशास्त्र को अपेक्षित कार्य करते हुए कोई भी दिखाई नहीं देता, यह वास्तविकता है । इसे कोई अमान्य नहीं कर सकता । तमिलनाडु में ३६ सहस्र सरकारीकृत मंदिरों में अब गैरब्राह्मण व्यक्तियों की पुजारी के पद पर नियुक्ति की जानेवाली है, साथ ही महिला पुजारी भी नियुक्त की जानेवाली हैं । केरल और महाराष्ट्र के श्री विठ्ठल-रुक्मिणी मंदिर के संदर्भ में यह निर्णय इससे पूर्व ही लिया गया है और उसका क्रियान्वयन भी हुआ है । इन राज्यों के हिन्दुत्वनिष्ठों और उनके संगठनों ने इस निर्णय का थोडा-बहुत विरोध किया; परंतु अंततः न्यायालय के आदेश के कारण इस निर्णय का क्रियान्वयन हो ही गया । इससे ‘सत्ता के सामने समझदारी नहीं चलती’, यह बात ध्यान में आती है । अब तमिलनाडु के इस निर्णय का विरोध करनेवाली भाजपा जब महाराष्ट्र में सत्ता में थी, तब वह अपने ही राज्य में इसका विरोध करते हुए दिखाई नहीं दी । इसके विपरीत कोल्हापुर के श्री महालक्ष्मी मंदिर में भी इस प्रकार नियुक्तियां करने के लिए सहमति ली गई; परंतु यह एक अलग बात है कि अभी तक इसका क्रियान्वयन नहीं हुआ है । इसलिए हिन्दुओं और उनके संगठनों ने हिन्दू धर्म पर हो रहे ऐसे आघातों का चाहे कितना भी विरोध किया, तब भी उसमें कुछ परिवर्तन होता दिखाई नहीं देता । जिनसे यह अपेक्षा होती है, वे भी जब झिझकते हैं, तब तो अधिक ही निराशा होती है; ऐसा ही कहना पडेगा । मंदिरों का सरकारीकरण भी इसी प्रकार अनुचित है । हिन्दुओं द्वारा भले ही उसका विरोध हो रहा हो; परंतु राजनीतिक दलों द्वारा उसका समर्थन किया जा रहा है ।
धर्मशास्त्र का पालन होना चाहिए !
मंदिरों में कार्यरत ब्राह्मण पुजारियों को हटाने के पीछे केवल ब्राह्मणद्वेष ही है, यह स्पष्ट है । हिन्दू धर्म ने ब्राह्मणों को जो अधिकार प्रदान किए हैं, उन अधिकारों का भले ही कुछ मुट्ठीभर लोगों ने दुरुपयोग किया हो; परंतु उसके लिए संपूर्ण ब्राह्मण समुदाय कैसे अपराधी हो सकता है ? धर्मनिरपेक्षतावादी लोग कहते रहते हैं, ‘सभी मुसलमान आतंकी नहीं होते ।’ तो ‘सभी ब्राह्मण बुरे हैं’, ऐसा वे कैसे बोल सकते हैं ?
किसी निजी प्रतिष्ठान अथवा सरकारी विभाग में चार श्रेणियों में कर्मचारियों और अधिकारियों की नियुक्तियां की जाती हैं । इसका कभी भी किसी ने विरोध नहीं किया है । अनेक दशकों से यह व्यवस्था चली आ रही है । तो इसी आधार पर ‘मंदिरों में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति करने की यह व्यवस्था हिन्दुओं की वर्णाश्रमव्यवस्था के अनुसार ही की गई है’, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा । यदि इनमें से कोई अधिकारी अथवा कर्मचारी अनुचित आचरण कर रहा हो अथवा कामचोर हो, तो उसपर कार्यवाही की जा सकती है । यही व्यवस्था मंदिर के पुजारियों के लिए भी लागू है । किसी पुजारी के संबंध में किसी को आपत्ति हो अथवा किसी को उसके दोष दिखाई दे रहे हों, तो एक व्यक्ति के रूप में उसपर कार्यवाही की जा सकती है; परंतु वह दोषी है, इसके लिए प्रथम श्रेणी के स्थान पर अन्य श्रेणी के व्यक्ति को पदासीन नहीं किया जा सकता, यह बात यहां ध्यान में रखनी होगी । हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार ब्राह्मणों को धर्मकार्य का अधिकार दिया गया है । उनमें से किसी व्यक्ति का आचरण उचित न हो, तो उस व्यक्ति पर कार्यवाही हो सकती है; परंतु केवल ब्राह्मणद्वेष के चलते धर्मशास्त्र के विरुद्ध कृत्य करना सर्वथा अनुचित और शास्त्र का उल्लंघन करनेवाला कृत्य है । यही बात आजकल महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु राज्यों में की जा रही है । धर्मप्रेमी हिन्दुओं को इसका विरोध करना आवश्यक है । यहां जातिद्वेष अथवा जातिव्यवस्था का प्रश्न नहीं है, अपितु यह धर्मशास्त्र से संबंधित विषय है और उसका अधिकार हिन्दुओं का है । किसी की सरकार अथवा राजनीतिक दलों को उसमें हस्तक्षेप करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए । भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र होते हुए भी संविधान ने प्रत्येक को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की है, इसका भान रखना आवश्यक है । इसमें कोई हस्तक्षेप कर रहा हो, तो उसे दमन ही कहना पडेगा । इस प्रकार का हस्तक्षेप हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मियों के संबंध में होता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं देता, इसे भी ध्यान में रखना होगा । मदरसों से आतंकवादी तैयार होने की अनेक घटनाएं सामने आई हैं; तब भी वहां के शिक्षकों की नियुक्तियां वहां की सरकार ही कर रही है, ऐसा अभी तक क्यों नहीं हुआ है ? धर्मनिरपेक्षतावादी और आधुनिकतावादी ऐसी मांग क्यों नहीं करते ?, यह प्रश्न उठता है । विदेशों में बडी संख्या में और भारत में उजागर हुई कुछ घटनाओं में पादरियों ने नन और छोटे बच्चों का यौन शोषण किए जाने की घटनाएं हुई हैं, तो ‘चर्च के पादरियों की नियुक्तियां सरकार को करनी चाहिए ।’, यह मांग क्यों नहीं की जाती ? या इस प्रकार की अप्रिय घटनाओं को देखते हुए सरकार स्वयं इसके लिए प्रयास क्यों नहीं करती ? तमिलनाडु में सत्ताधारी द्रमुक (द्रविड मुन्नेत्र कळघम्) अथवा केरल की वामपंथी सरकार हिन्दूविरोधी है, यह तो सर्वविदित ही है । ऐसे राजनीतिक दलों से हिन्दुओं के विरुद्ध ही कार्य होगा, यह भी उतना ही स्पष्ट है । ऐसी स्थिति में यह निर्णय लोकतंत्र विरोधी नहीं है, तो क्या है ? क्या यह संविधानप्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन नहीं है ? क्या यह जातिद्वेष नहीं है ? इसीलिए ऐसी घटनाओं और हिन्दूद्वेषी राजनीतिक दलों को रोकने के लिए हिन्दुओं और उनके दलों को संगठित होकर देश में धर्माधिष्ठित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ, तो हिन्दूद्वेषी राजनीतिक दल कल हिन्दुओं के मंदिरों में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अन्य धर्मियों की नियुक्तियां करने में नहीं हिचकिचाएंगे । पहले ही मंदिरों का धन अन्य धर्मियों पर खर्च किया जा रहा है । भविष्य में मंदिर ही उनके नियंत्रण में न जाएं, ऐसा ध्यान में रखना अत्यावश्यक है ।