चीन पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव
१. चीन, तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक संबंध
बहुत प्राचीन समय से चीन, तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक संबंध थे । तिब्बत को त्रिविष्टप अर्थात स्वर्ग’ कहा गया है । मनु ने चीन का उल्लेख किया है (ई.स.पू. ८०००) । रेशम चीन से आता है; इसलिए पाणिनि ने (ई.स.पू. २१०० वर्ष) उसे चीनांशुक’ कहा है ।
२. भारत चीन का गुरु !
ऑरेल स्टीन अपने ‘सर इंडिया’ ग्रंथ में कहता है, तुर्किस्तान खोतान (गोस्थान) में भारतीय राज्य समृद्ध थे । वहां शासकीय कार्य में भारतीय भाषा का प्रयोग होता था, वहां की मुद्राआें और शिलालेखों से ऐसा प्रमाणित होता है । वहां श्रीविष्णु की पूजा होती थी । तदनंतर बुद्ध की पूजा होने लगी । साथ ही वहां संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि ज्ञात थी ।’
चीन के इतिहासकार, पंडित, विद्वान, कुछ राजनेता भी ‘हिन्दुस्थान को चीन का गुरु’ होना मान्य करते हैं । वर्ष १९६२ तक चीन-भारत मित्रता अखंड थी । पहले सहस्रों वर्ष दोनों देशों में धार्मिक और सांस्कृतिक मित्रता थी ।
‘विस्डम ऑफ इंडिया’ ग्रंथ में लिन युटांग कहते हैं, हिन्दुस्थान धर्म और सरल वाङ्मय विषयों में चीन का गुरु तथा त्रिकोणामिति, वर्गसमीकरण, व्याकरण, ध्वनिशास्त्र, अरेबियन नाईट्स, प्राणियों का खेल, शतरंज का खेल, तत्त्वज्ञान विषयों में अखिल जगत का गुरु था । बोकैशिओ, गटे, शपेनहॅमर, इमर्सन ने भारत से प्रेरणा ली ।’’
चीनी पंडित सहस्रों मीलों की कष्टदायक यात्रा कर सीखने के लिए भारत आते थे । चीन में हिन्दू पंडित तथा योगियों की बडी मांग थी । उस समय उनके लोयांग राजधानी में ५० सहस्र हिन्दू और ३ सहस्र भारतीय पुरोहित थे । बौद्ध धर्म चीन में जाने से पहले भी भारत-चीन संबंध थे । ई.स.पू. १२१२ अर्थात ३ सहस्र २०० वर्ष पूर्व से भारत-चीन संबंध थे ।
३. मनुस्मृति से द्वेष रखनेवालों को इस विषय में क्या कहना है ?
एक शोधकर्ता पंडित मोटवानीजी कहते हैं, ‘‘चीन मनुस्मृति से परिचित था ।’’ वे बताते हैं, वर्ष १९३२ में जापान ने चीन पर आक्रमण किया । उसमें चीनी परकोटे का कुछ भाग उद़्ध्वस्त हुआ ।
वहां भूमि में गहरे विवर में एक डिब्बे में एक हस्तलिखित मिला । उस हस्तलिखित को सर ऑगस्ट्स फ्रिट्ज जॉर्ज खरीदकर लंदन ले गए और प्रा. एंथनी ग्रेमी के नेतृत्व में चीनी विशेषज्ञों के गुट को सौंपा । उसमें १० सहस्र वर्ष पूर्व लिखे मनुस्मृति का उल्लेख मिला । वह हस्तलिखित वैदिक भाषा में था ।
४. आत्मा के विषय में चीनी तत्त्ववेत्ता ताओ (ताओ, यह नाम है ।)का ज्ञान, वैदिक तत्त्वज्ञान ही है ।
५. हिन्दू धर्म का तिरस्कार करनेवाले बौद्ध क्या यह वास्तविकता समझेंगे ?
तत्त्ववेत्ता लिंग कहता है, प्राचीन समय से चीन के उत्तर में सुसंस्कृत प्रदेश नहीं था । पूर्व में पैसिफिक महासागर से सभ्यता का एक शब्द भी आने की संभावना नहीं थी । पश्चिम में तो सारे राष्ट्र संस्कृतिहीन थे । एकमेव नैऋत्य से (भारत से) संस्कृति आने की संभावना थी । उनसे हमारी मित्रता हुई ।
ईसा युग के पूर्व ८०० वर्ष ई.स. १ से ८०० में भारत से अनेक विचारक, संत, बौद्ध भिक्षु चीन आते थे । उनमें से २४ लोगों के नाम प्रख्यात हैं । कश्मीर से हमारे यहां १३ दूत आए । चीन से १८७ बडे पंडित आदरभाव और संदेश लेकर हिन्दुस्थान गए । उनमें से १०५ लोगों के नाम उपलब्ध हैं । भारतीय इतिहास में भी फार्हीन, ह्युएनत्संग, इत्सिंग नाम हैं ।
एक चीनी पंडित कहता है, भारत को चीन से कोई लोभ नहीं था, तबभी उन्होंने हमें मोक्ष तथा मित्रता की साधना सिखाई । उनके वाङ्मय, कला, शिक्षा, संगीत, चित्रकला, वास्तुशास्त्र, शिल्पकला, नाट्य से हमें प्रेरणा मिली । आते समय भारतीय अपने साथ खगोलशास्त्र, औषधिशास्त्र तथा सामाजिक शैक्षिक संस्थाआें का उपहार लाए ।’’
६. चीन सहित अलग-अलग देशों में हिन्दू धर्म
वर्ष १२५८ में कुब्लाई खान ने बौद्ध धर्म के पक्ष में निर्णय दिया, तभी से बौद्ध धर्म चीन का लगभग राष्ट्रधर्म हुआ । उस प्रसंग पर ३०० बौद्ध भिक्षु २०० ताओपंथी, २०० कन्फ्यूशियन पंडित उपस्थित थे । १९ वर्ष के फागरपा नामक तिब्बती बौद्ध भिक्षु ने वक्तृत्व के बल पर बौद्धधर्म को श्रेष्ठ साबित किया ।
उस समय काबुल, गांधार, कुभा, सेतुमंत और चाक्षुष प्रदेश में अथार्र्त काबुल, कंधार (अफगानिस्तान), हेलमुंड, ऑक्सस प्रदेश में हिन्दू और बौद्ध धर्म थे । इरान मेें भी हिन्दू धर्म था । इस प्रदेश में मंदिर, स्तूप तथा बुद्ध मूर्तियां सैकडों की संख्या में थीं । १७ वीं शताब्दी में अकबर के एक मंत्री ने उनकी संख्या १२ सहस्र होने की बात लिखी है ।
उनमें से बामियान में बुद्ध की विशाल मूर्ति अफगान के धर्मांधों ने तोडकर नष्ट कर दी । अन्य मंदिर, स्तूप, विहार भी जिहादी धर्मांधों ने उद्ध्वस्त किए । अफगानिस्तान का पुराना नाम अरियाना’ (आर्यभूमि), जलालाबाद का नगरप्रहार’ और वेग्राम का नाम ‘कपिशा’ था ।
७. चीन में बौद्ध संस्कृति का हिन्दुत्व
अ. वर्ष १८९१ में चीन के अंतर्भाग में कर्नल बॉबर को बर्चवृक्ष की छाल पर कुल मिलाकर ७ लेख मिले, उनमें से ३ लेख औषधियों पर थे । उसमें ‘नवनीतक’ सबसे बडा लेख था और उसके १६ विभाग थे । उसमें चूर्ण, आसव, अर्क, तेल सिद्ध करना, औषधि शरीर में रिसाना, बच्चों का पोषण, औषधियों की कृतियां आदि का विवरण था ।
सभी लेख पद्यमय हैं । भाषा प्राकृतमिश्रित संस्कृत है । उसका अंतिम भाग खो जाने से लेखक का नाम नहीं है । उसमें अग्निवेश, भेद, हरित, जातुकर्ण, क्षारपाणि और पराशर के नाम हैं ।
उससे भी प्राचीन हस्तलिखित चीन में मिले हैं । अश्वघोष का नाट्य संबंधी लेखांक जर्मन मिशन को मिला और प्रा. लूडर्स ने प्रकाशित किया । फ्रेंच मिशन को धम्मपद के संस्कृत अनुवाद का हस्तलिखित मिला ।
आ. एमपेलिएट के नेतृत्व में फ्रेंच दल ने संस्कृत और कुचियन भाषा के १५ सहस्र गोलों का अध्ययन किया । उनमें अनेक लेख बौद्ध धर्म पर थे । वे ११ वीं शताब्दी के पहले के थे । उन्हें आक्रमणकर्ताआें से छिपाने के लिए भित्तियों में छिपाया गया था । वे संयोग से वर्ष १९०० में मिले । सहस्रों लेख में भारतीय संस्कृति का उल्लेख है । वे लेख संस्कृत, प्राकृत, सोग्डीयन, तुर्की, तिब्बती, चीनी, तथा कुछ विस्मृत भाषाआें में हैं । उनमें चीन में भारतीय संस्कृति के अस्तित्व के सहस्रों प्रमाण हैं ।
८. भारतीयों द्वारा चीनी संस्कृति पर भारतीय संस्कृति की डाली गई छाप
अ. चीन में बौद्ध धर्म का प्रसार होने में कश्मीर का बडा सहभाग है । कश्मीर से बहुत से पंडित चीन गए । उनमें विख्यात परमार्थ नामक पंडित थे । (ई.स.५४६) उन्होंनेे ७० बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया । ब्राह्मण पंडित भी चीन गए । ई.स. ५६२ में विनीतरुचि’ नामक दक्षिण भारत के ब्राह्मण चीन की राजधानी में गए । उन्होंने चीनी भाषा में दो ग्रंथों का अनुवाद किया । वहां से वे तोनकिन गए और वहां उन्होंने एक ध्यानकेंद्र बनाया ।
आ. दक्षिण चीन के क्वाबाजॉन पत्तन में हुए उत्खनन में शिव, श्रीविष्णु, हनुमान, लक्ष्मी एवं गरुड की मूर्तियां मिली हैं ।
‘इंडियन एक्स्प्रेस’ के १८ फरवरी १९८७ के अंक में इस विषय का वृत्त प्रसिद्ध हुआ । उसके अनुसार शिला में खुदी नृसिंह की ७३ मूर्तियां मिलीं । पार्वती सहित शिव के उत्कीर्ण असंख्य चित्र मिले । उनमें बैल, हाथी और अन्य प्राणी उसे वंदन कर रहे हैं । यह सब युआन वंश के समय के (इ.स. १२६० से १३६८) मंदिरों में मिले ।
इ. तांग वंश के समय में (इ.स. ६१८ से ९६०) क्वांगजॉन में ब्राह्मणों ने आश्रम बनाए और वहां बडी संख्या में ब्रह्मचारी रहते थे ।
ई. चेई राजवंश के राजाआें ने ४७ मठ बनाए । नागरिकों ने व्यक्तिगत रूप से ३० सहस्र मंदिर बनाए । उनमें रहनेवाले भिक्षु-भिक्षुणियों की संख्या २० लाख से अधिक थी ।
उ. चीन में बौद्ध धर्म के आगमन के साथ भारतीय कलाएं भी वहां गईं । युनवान में पर्वत तोडकर गुफाएं बनाई गईं, जिनमें ७० फुट ऊंचाई की बुद्ध मूर्तियां बनाई गईं । भित्तियों पर अजंता की गुफाआें जैसे रंगीन चित्र बनाए गए । शाक्यबुद्ध, बुद्धकीर्ति, कुमार बोधी, ये ३ चित्रकार चीन गए । उन्होंने ये कलाकृतियां निर्मित कीं । गांधार, गुप्त एवं मथुरा शैली की सभी बानगियां उनमें हैं ।
ऊ. भारतीय संगीत ने भी चीनी संगीत पर अपनी छाप डाली । ‘कुची नामक ब्राह्मण ने यह कार्य किया । इ.स. ५८१ में हिन्दी संगीतकारों का एक दल चीन गया । तांग समय में ‘बोधी नामक एक ब्राह्मण ने उसे ‘बोधीसत्त्व और ‘भैरो नामक संगीत के दो प्रकार सिद्ध किए । उन्हें जापान में भी प्रचलित किया ।
ए. भारतीय खगोलशास्त्र, गणित, औषधि आदि शास्त्र चीन ले गए । ‘नवग्रह सिद्धांत’ खगोलशास्त्र के ग्रंथ का तांग समय में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ । भारतीय औषधिशास्त्र चीन में लोकप्रिय हुआ । ११ वीं शताब्दी में ‘रावणकुमारचरित’, बाल्यरोग पर लिखे संस्कृत ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ ।
ऐ. इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म का तत्त्वज्ञान कर्मसिद्धांत, पुनर्जन्म, सत्कर्म और भारतीय विचार चीन में रूढ हुए । चीन के प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ ताओ और लाओत्से के विचारों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव है । बोधी धर्म नामक बौद्ध गुरु कांचीपुरम नगर से चीन गया । उसने वहां के लोगों और राजा को ध्यान सिखाया, उसी को ‘जेन कहते हैं । जापान में ‘चान कहते हैं ।
१०. हिन्दू धर्म की सीख सहिष्णु होने का प्रमाण !
अ. ह्वेन त्सांग
बौद्धधर्मीय महान भिक्षु था । उसका जन्म ई.स. ६०० में सनातनी कन्फ्यूशियन परिवार में हुआ । वह जीवन के २० वें वर्ष में भिक्षु बना । उसने चीनी भाषा के बौद्ध वाङ्मय का अध्ययन किया; किंतु समाधान नहीं हुआ; इसलिए उसने हिन्दुस्थान जाकर मूल ग्रंथों का अध्ययन करने का निश्चय किया ।
ई.स. ६२९ में वह चीन से निकल पडा । मध्य एशिया के मार्ग से एक वर्ष के उपरांत वह काफिरीस्तान (कपिशा)े पहुंचा और वहां से कश्मीर गया । वहां के संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया । तदनंतर वह नालंदा विश्वविद्यालय में गया । विश्वविद्यालय के आचार्य शीलभद्र के मार्गदर्शन में बौद्ध ग्रंथ के योगाचार पद्धति का अध्ययन किया ।
तदनंतर वह सम्राट हर्षवर्धन से मिला । राजा ने शाही व्यवस्था कर उसका सम्मान किया । बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराईं । कामरूप के राजा ने भी उसका सम्मान किया । ई.स. ६४४ में वह भारत से गया । जाते समय वह अपने साथ संस्कृत भाषा की बौद्ध धर्म संबंधी बोरीभर पुस्तकें ले गया । सम्राट हर्ष ने उसके लौटने की व्यवस्था की । उसे सेना के संरक्षक, हाथी और आवश्यक सामग्री दी ।
भारत की पवित्रभूमि के दर्शन से ह्वेन त्सांग को बहुत संतोष हुआ । वह बोला, ‘मैंने गृधकुट पर्वत का अवलोकन किया, बोधीवृक्ष का पूजन किया, ऐसे अवशेष देखे, जो पहले कभी न देखे थे । पवित्र शब्दों का श्रवण किया, जो पहले न सुने थे । सारे निसर्गपूजकों को पीछे छोड देनेवाले अध्यात्मक्षेत्र के असाधारण व्यक्ति समक्ष देखे ।’ आयु के शेष समय में उसने चीनी भाषा में संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया । उनके शिष्यों को पढाया, ई.स. ६६० में उसकी मृत्यु हो गई । भारत-चीन संबंधों में यह एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ ।
आ. इत्सिंग
ह्वेन त्सांग से चीन के जिज्ञासुआें को प्रेरणा मिली और अनेक चीनी भिक्षु भारत आए । उनमें से इत्सिंग वर्ष ६७१ मेें चीन से निकल कर सागर मार्ग से भारत आया और वह नालंदा में रहा । वर्ष ६७५ से ६८५, ये १० वर्ष वह भारत में था । वह अपने साथ ४०० संस्कृत ग्रंथ लेकर गया । चीनी भाषा में उनका अनुवाद किया । चीनी-संस्कृत शब्दकोषों की रचना की । विविध देशों के ६० बौद्ध भिक्षुआें के चरित्र लिखे ।
इ. युवानच्वांग
युवानच्वांग नाम का भिक्षु अध्ययन के लिए चीन से भारत आया था । उसके वर्णन के अनुसार नालंदा में १० सहस्र भिक्षु रहते थे । उनके रहने के लिए ४ सहस्र कक्ष थे, तथा १ सहस्र ५०० अध्यापक थे । वह नालंदा में ७ वर्ष रहा ।
११. चीन में संस्कृत भाषा थी, इसके प्रमाण में कुछ उदाहरण
अ. चीन में संस्कृत भाषा थी, इसके प्रमाण हैं । पेकिंग से ४० मील पर उत्तर में कनयुंग क्वान में एक कमान पर खुदे लेख में ६ विविध भाषाएं हैं । उनमें एक लेख संस्कृत भाषा का है ।
आ. चीन में मंदिरों के उत्खनन में मिली वस्तुआें पर रामायण के दृश्य कुरेदे हुए हैं । कोंग सांग नामक चीनी लेखक ने ई.स. २५१ में रामायण का चीनी भाषा में अनुवाद किया । दक्षिण चीन में क्वांजोन में उत्खनन में हनुमान की मूर्ति मिली । वह युआन घराने के समय की है । दक्षिण चीन के क्वांओ प्रांत में युआन घराने के स्वामित्व की शिवमूर्ति मिली है ।
१२. पूरे विश्व को आर्य (सुसंस्कृत) बनाने की चाह रखनेवाला भारत !
‘इंडिका’ ग्रंथ में एरियन का कहना है, ‘‘भारत आज तक इतिहास में आश्चर्य बना हुआ है । उसने पारमार्थिक विजय पाई । अंतरराष्ट्रीयवाद का समर्थन किया । किसी पर भी आक्रमण नहीं किया । पूरे विश्व में अपनी संस्कृति पहुंचाई । ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।’ पूरे विश्व को सुसंस्कृत करेंगे’ भारतीय यह संदेश पूरे विश्व में ले गए । इस कारण विश्व के प्रत्येक देश में भारतीय संस्कृति के सहस्रों चिह्न हैं ।’’
चीन और भारत में सांस्कृतिक लेन-देन प्राचीन समय से थी । ‘चायना’ शब्द संस्कृत चीन से आया है । चीन के साम्यवादियों का आक्रमण होने तक (वर्ष १९६२) इन दो देशों में कभी भी संघर्ष नहीं हुआ । दोनों अच्छे पडोसी थे । उनमें सामंजस्य और सद़्भावना थी । केवल सत्य, स्वार्थ, त्याग, कला तथा साहित्य की नींव पर चीन और भारत के सांस्कृतिक संबंध निर्मित हुए । अपना गुणगान न कर भारतीय भिक्षुआें ने बौद्ध धर्म की चीनी संहिताएं सिद्ध कीं ।
– भागवताचार्य वा. ना. उत्पात
(संदर्भ : मासिक ‘धर्मभास्कर’, एप्रिल २०१७)