‘उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने पर होनेवाले अपेक्षित लाभ एवं संभावित हानि तथा सनातन संस्था के माध्यम से साधना करने के कारण हुए लाभ’, इस संबंध में देवद आश्रम के श्री. अरुण डोंगरे की हुई विचार-प्रक्रिया !
‘आईआईटी [Indian Institute of Technology (IIT)]’ कानपुर से ‘बीटेक (Bachelor of Technology)’ करने के उपरांत वर्ष १९७५ में यदि मैं पहले निश्चित किए अनुसार अमेरिका में ‘मैसेच्युसेट्स इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ [Massachusetts Institute of Technology (MIT) संसार का प्रथम क्रमांक का विश्वविद्यालय)] में ‘एमएस (Master of Science)’ व ‘Sc.D. (Doctor of Science)’ करने गया होता, तो होनेवाले लाभ एवं हानि तथा सनातन संस्था के माध्यम से साधना की ओर मुडने से हुए लाभ आगे दिए हैं ।
१. अमेरिका में शिक्षा के लिए गया होता, तो मुझे आगे दिए हुए अपेक्षित लाभ हुए होते ।
अ. ‘आगामी शिक्षा मिलकर बडी मात्रा में बुद्धि का सुख मिला होता ।
आ. आगे चलकर अमेरिका की नागरिकता मिलकर वहीं जीवन बीतता ।
इ. मेरे विषय (‘मटेरियल साइन्स एंड इजीनियरिंग’) की गहन जानकारी मिली होती ।
ई. ‘एमआईटी’ में अनेक ‘नोबेल’ परितोषिक विजेता पढाने का तथा शोध का कार्य करते हैं, इसलिए उनसे परिचय होकर ‘धातुविज्ञान’ के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया होता ।
उ. अनेक अंतरराष्ट्रीय पारितोषिक मिले होते ।
ऊ. अमेरिका में बडी ‘स्टील कंपनी’ में उच्च जीवनमान का अनुभव किया होता ।
ए. शिक्षा के उपरांत भारत में लौटा होता, तब भी पहले निश्चित किए अनुसार ‘टाटा स्टील’ प्रतिष्ठान में अच्छी नौकरी मिली होती। उस समय रूसी मोदी और जे.जे. ईरानी, इन दोनों ने (‘टाटा स्टील’ प्रतिष्ठान के सर्वाधिक उच्चपदस्थ अधिकारियों ने) इस संबंध में मुझे पहले ही आश्वस्त किया था ।
ऐ. व्यवहारिक सफलता के संबंध में आत्मविश्वास बढा होता ।
ओ. निरंतर सफलता मिलने से मानसिक स्थिरता मिली होती ।
२. अमेरिका में शिक्षा के लिए गया होता, तो मेरी आगे दी हुई हानि हो सकती थी ।
अ. अमेरिका में ही जीवन बीतता, तो भारत की सात्त्विकता से वंचित रह जाता ।
आ. समाज के उच्च वर्ग से जुडने के कारण साधारण वर्ग से संपर्क नहीं हुआ होता । सामान्य जनता के प्रश्न नहीं समझ पाता और अहं बहुत बढ जाता ।
इ. शिक्षा में ‘डिप्लोमा’ और ‘बीई’ करनेवालों को मैं तुच्छ मानता था । इसलिए वर्तमान में रूढ व्यवहारिक शिक्षाप्रणाली के संबंध में मेरे मन में हीनभावना उत्पन्न हुई होती ।
ई. निरंतर व्यवहारिक सफलता मिलने से साधना की ओर मुडने की संभावना कम होती ।
उ. बाह्य संसार और वस्तुआें को ही सत्य माना होता ।
ऊ. साधना के दृष्टिकोणों को अंधश्रद्धा मानता ।
ए. ‘खरा आनंद आध्यात्मिक स्वरूप का होता है’, यह नहीं समझ पाता ।
३. मेरी कुछ अडचनों के कारण आगामी शिक्षा के लिए मैं अमेरिका नहीं
जा पाया । उसके पश्चात मैंने भारत में नौकरी की और व्यवसाय भी किया ।
४. वर्ष १९९८ में सनातन संस्था के माध्यम से साधना की ओर मुडने से मुझे निम्नांकित लाभ हुए ।
अ. मैंने नौकरी और व्यवसाय में बहुत प्रयास किया; परंतु मुझे व्यवहारिक सफलता नहीं मिली । तब यह प्रतीत होने लगा कि यह सब बुद्धि से परे है । इसलिए सनातन संस्था के संपर्क में आने के उपरांत नामजप, सत्संग, अभ्यासवर्ग और अध्यात्मप्रसार तुरंत प्रारंभ कर पाया ।
आ. भौतिक आकर्षण और व्यवहारिक आवश्यकताएं न्यून हो गईं । इसलिए साधना के लिए पूर्ण समय दे पाया ।
इ. ‘ईश्वर को जो करवाना होता है, वह वे करवा लेते हैं अथवा वैसा करवा लिया जा रहा था और आगे भी उन्हें अपेक्षित करवा लिया जाएगा’, ऐसी श्रद्धा दृढ होने के कारण भविष्य की चिंता ९० प्रतिशत न्यून हो गई तथा वर्तमान काल में रहना आने लगा ।
ई. ‘आवश्यकता से अधिक पैसा रखकर क्या करना है ?, ऐसा विचार दृढ हो गया और पैसों के प्रति कुछ नहीं लगता ।
उ. ‘जीवन में आए हुए सुख-दुःख के प्रसंग यद्यपि तीव्र थे, तथापि वैसा घटने के कारण अध्यात्म की ओर मुडने में सहायता मिली’, इस संबंध में कृतज्ञता लगने लगी । (‘भौतिक और व्यवहारिक असफलता के कारण मैं साधना की ओर मुडा’, यह विचार आज भी मेरे मन में है ।)
ऊ. पहले दूसरों के कारण मानसिक कष्ट होने पर मुझे उन पर क्रोध आता था । अब ‘मेरे समान ही दूसरों से भी कृत्य करवानेवाले भगवान ही हैं’, यह विचार दृढ होने के कारण उनके प्रति मन में स्थित क्रोध और प्रतिक्रियाएं न्यून हो गईं ।
ए. इमेल, ट्वीटर और फेसबुक जैसे ‘सोशल मीडिया’ का उपयोग अधिकाधिक अध्यात्मप्रसार के लिए करने लगा ।
ऐ. साधना में आने के उपरांत मैं अपनी शिक्षा से संबंधित (Foundry Technology के) शोधनिबंध लिख पाया ।
ओ. व्यवहारिक असफलता के कारण उत्पन्न हुई नकारात्मकता साधना से न्यून होने लगी ।
औ. ‘सनातन संस्था के मार्गदर्शनानुसार साधना कर आध्यात्मिक उन्नति हो पाएगी तथा आगे मोक्षप्राप्ति की दृष्टि से मार्गक्रमण हो पाएगा’, यह श्रद्धा दृढ होकर मेरे द्वारा क्रिया होने लगी ।
उपरोक्त अनुसार हुई विचारप्रक्रिया के लिए भगवान श्रीकृष्ण और परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चरणों में कोटिशः कृतज्ञता व्यक्त करता हूं !’ – श्री. अरुण डोंगरे, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (७.४.२०२०)