लद्दाख के पराक्रम के मानक : ‘एसएफएफ’(स्पेशशल फ्रन्टिपयर फोर्स) सैनिक !
१. पैंगांग गाँग त्सो तालाब के युद्ध में ‘एसएफएफ’ के सैनिकों ने दिखाया पराक्रम !
‘लद्दाख में पैंगाँग त्सो तालाब के दक्षिण में २९ और ३० अगस्त को भारतीय सैनिकों को दिखाई दिया कि चीन के ५०० से ६०० सैनिक भारतीय सीमा में घुसने का प्रयास कर रहे हैं । उसके पश्चात भारतीय सैनिकों ने उन्हें अंदर आने दिया और उनके साथ युद्ध आरंभ किया । इस युद्ध में सैन्य शस्त्रों का उपयोग नहीं किया गया; अपितु इस युद्ध में धक्कामुक्की, बॉक्सिंग, कुश्ती, ज्युडो, क्युटो के साथ ही धैर्य, शौर्य और नेतृत्व की कुशलताआें का उपयोग किया गया और हमने यह लडाई बहुत अच्छे तरीके से लडी ।
इस आक्रामक कार्यवाही में कदाचित हमारा एकाध सैनिक वीरगति को प्राप्त हुआ हो; परंतु उसमें चीन के १५ सेे २० सैनिक मारे गए हैं । इसके साथ ही भारत ने उनके २० से २५ सैनिकों को भी पकडा । तत्पश्चात भारतीय सेना ने त्रिशूल तक के अलग-अलग टीले पर अपने ५ से ६ सहस्र सैनिकों को तैनात किया । यह बहुत ही आक्रामक कार्यवाही थी । इससे पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ था । यह पराक्रम दिखानेवाले ‘एसएफएफ (स्पेशल फ्रन्टियर फोर्स)’ के कमांडो थे ! इससे पहले इस बल के संदर्भ में कभी भी सार्वजनिक रूप से नहीं बोला गया था; परंतु अब सरकारी समाचार देनेवाली वाहिनियों ने इस अभियान में ‘एसएफएफ’ के भाग लेने की जानकारी दी है ।
२. पराक्रमी ‘एसएफएफ’ की पृष्ठभूमि
वर्ष १९४९ में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया । तब दलाई लामा तिब्बत के प्रमुख थे । दलाई लामा के अंगरक्षक ‘खम्पा’ नामक लडाकू समुदाय तिब्बती थे, जो बहुत ही शूर वीर सैनिक थे । चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर तिब्बतियों पर अत्याचार करना आरंभ किया । निःशस्त्र तिब्बतियों ने चीन के विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास किया, तब चीन ने लगभग १.५ लाख तिब्बतियों को मार डाला । इसलिए वर्ष १९५९ में दलाई लामा और उनके अनुयायी पलायन कर भारत आए । वे आजकल भारत के धर्मशाला क्षेत्र में रहते हैं तथा उनकी जनसंख्या २.५ से ३ लाख तक है । ऐसी स्थिति में भारत को आक्रामक कार्यवाही कर तिब्बतियों की सहायता करना आवश्यक थी; परंतु तब भारत ही चीन से डरता था; इसलिए भारत ने तिब्बतियों की सहायता नहीं की ।
अमेरिका को ऐसा लगा कि इससे चीनी ‘कम्युनिजम’ का तिब्बत, नेपाल और भारत में बडी मात्रा में प्रसार होगा; इसलिए अमेरिका ने चीन के विरुद्ध तिब्बत में युद्ध करने का निर्णय लिया । तब अमेरिका ने भारत से यह अनुरोध किया कि ‘हम तिब्बती लडाकू समुदाय को प्रशिक्षण देंगे, आप हमें भूमि दीजिए ।’ तब भारत के पूर्ण रूप से ‘नॉन अलाईन’ में (अहिंसा) फंस जाने से उन्हें भारत में प्रशिक्षण देने की अनुमति नहीं दी गई । अंततः उन्होंने नेपाल के एक ऊंचाईवाले क्षेत्र में यह प्रशिक्षण पूरा किया ।
३. चीन की ओर से खम्पा सैनिकों के साथ विश्वासघात !
खम्पा सैनिकों ने १ – २ वर्षों तक थोडी-बहुत आक्रामक कार्यवाही की । तब चीन ने उन्हें वहां से बाहर निकालने के लिए नेपाल पर दबाव डाला । तत्पश्चात नेपाल ने भारत को बताया; भारत ने दलाई लामा को बताया और लामा ने खम्पा सैनिकों को बताया, ‘‘लडना हमारा काम नहीं है । आप अपने शस्त्र नीचे रखकर नेपाल की शरण में जाएं । उसके पश्चात आपको वापस लाया जाएगा ।’’ तब कुछ लोगों ने यह बात नहीं मानी; परंतु अनेक सैनिकों ने मान ली । उन सभी को नेपाल ने अपने नियंत्रण में लेकर चीन को सौंप दिया; परंतु चीन ने उन्हें मार डाला । इस प्रकार खम्पा सैनिकों के साथ विश्वासघात किया गया । उसके पश्चात अमेरिका की कार्यवाही रुकी ।
४. भारत की कायरता !
वर्ष १९६२ के भारत-चीन युद्ध के पश्चात अमेरिका के सुझाव पर भारत ने कमांडो बल ‘एसएफएफ’ का गठन किया । इसके लिए भारत में बसे तिब्बती लोगों का उपयोग किया गया । इसमें सभी युवक तिब्बती थे । उसमें कुछ खम्पा भी थे । उनके अधिकारी भारतीय सेना के थे । उन्हें बहुत ही अच्छी तरह प्रशिक्षण दिया गया । उनकी सहायता के लिए वायुदल की भी व्यवस्था की गई । वर्ष १९६५-६७ तक उनका काम अच्छा चल रहा था । उसके पश्चात एसएसबी फोर्स (सीमा सुरक्षा बल) बनाया गया । उनका भी काम इसी प्रकार का था; परंतु तब भारत चीन से इतना भयभीत था कि इस ‘एसएफएफ’ और ‘एसएसबी’ का उपयोग ही नहीं किया जा रहा था । चीन के विरुद्ध उनका उपयोग करना लगभग रुक ही गया था ।
५. विविध युद्धों में ‘एसएफएफ’ द्वारा दिखाया गया पराक्रम !
अ. वर्ष १९७१ के युद्ध में ‘एसएफएफ’ का सहभाग था । इन सैनिकों में टीले पर काम करने का कौशल था । इसलिए उन्हें बांग्लादेश के चितगांव के टीले पर रखा गया । वहां से उन्हें पाकिस्तानी सेना पर आक्रमण करने का काम सौंपा गया । उसके पश्चात उन्होंने मुक्ति वाहिनी के साथ अनेक युद्ध अभियान चलाए । इस युद्ध में उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया ।
आ. कारगिल की लडाई बहुत ही ऊंचे स्थान पर लडी गई । वहां उनका उपयोग करने का प्रयास किया गया । वहां भी उन्होंने अपना पराक्रम दिखाया ।
इ. वर्ष १९८४ में केंद्र सरकार ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ अभियान चलाया । इस अभियान के अंतर्गत स्वर्णमंदिर में आक्रामक कार्यवाही कर वहां छिपे ७०० से ८०० आतंकियों को मारा गया । उस समय वहां अकाल तख्त महत्त्वपूर्ण भाग था । इस अकाल तख्त को आतंकियों के चंगुल से छुडाने हेतु ‘एसएफएफ’ का उपयोग किया गया ।
ई. कश्मीर में १-२ स्थानों पर आतंकवादविरोधी अभियान में भी उनका सहभाग था । इन तिब्बतियों ने स्वतंत्र भारत में भारतीय अधिकारियों के मार्गदर्शन में बहुत ही अच्छा काम किया ।
६. तिब्बतियों की मजबूती का फल !
ऊंचे क्षेत्रों पर लडने में तिब्बती बहुत ही उपयोगी हैं । वर्ष १९५९ के तिब्बती अब वयस्क हो चुके हैं । आजकल के ‘एसएफएफ’ में कार्यरत तिब्बती भारत में जन्मे हैं । पहले के तिब्बतियों को जो ज्ञान था, वह आज के तिब्बतियों को नहीं है । सौभाग्यवश उन्हें भारत सरकार ने ऊंचाईवाले क्षेत्रों में बसाया है; इसलिए वे अति ठंडे स्थान पर रहते हैं, जिससे वे अभी भी मजबूत (‘टफ’) हैं । अब उनकी ५-६ बटालियन बनाई गई हैं । उन्हें शपथ दिलाकर काम कराया जाता है; इसलिए उनका काम कभी भी प्रसारमाध्यमों में नहीं आता । तो इस समय भारत सरकार ने उनका नाम क्यों लिया ?; क्योंकि भारत ने चीन को चेतावनी दी थी कि हमने आपके विरुद्ध तिब्बतियों का उपयोग किया है । उन्होंने आपके लोगों को भी पकडा है । आपके कुछ सैनिक इसमें मारे गए हैं । परिणामस्वरूप ५० लाख तिब्बती जनता तक यह जानकारी पहुंच गई कि तिब्बती युवकों ने भारतीय सेना में सहभाग लेकर अच्छा काम किया है ! अब अन्य स्थानों पर भी उनका उपयोग किया जानेवाला है । यदि युद्ध हुआ, तो आक्रामक कार्यवाही करने में निश्चित रूप से भारत को उनसे लाभ मिलेगा !
– (सेवानिवृत्त) ब्रिगेडियर हेमंत महाजन, पुणे, महाराष्ट्र.