वाराणसी की श्रीमती दुर्गा चौबे ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त !
वाराणसी (उत्तर प्रदेश) – यहां की सनातन संस्था की साधिका श्रीमती दुर्गा चौबे ने समष्टि भाव, लगन, स्वअनुशासन आदि गुणों के कारण ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया । यह आनंद वार्ता वाराणसी के सेवाकेंद्र में २५ अगस्त को फलक पर लिखकर घोषित की गई । इस समय पू. नीलेश सिंगबाळजी ने उनका सत्कार भगवान श्रीकृष्णजी का छायाचित्र देकर किया ।
प्रेमभाव, सेवा की लगन और संतों के प्रति भाव से युक्त श्रीमती दुर्गा चौबे की गुणविशेषताएं !
१. प्रेमभाव और अन्यों का विचार
१ अ. कक्ष में रहनेवाली साधिका को शारीरिक कष्ट होने पर उसका ध्यान रखना : ‘दुर्गाजी के कक्ष में रहनेवाली एक साधिका को बीच-बीच में शारीरिक कष्ट होते हैं । पीडा होने के कारण उसे कुछ समय विश्राम करना पडता है । वह साधिका आयु में दुर्गाजी से छोटी है; परंतु तब भी दुर्गाजी उस साधिका की ओर ध्यान देती हैं । एक सत्संग में उसने दुर्गाजी के संदर्भ में कहा, ‘‘वास्तव में देखा जाए, तो मुझे काकू का ध्यान रखना चाहिए; परंतु काकू ही मेरी चिंता करती हैं ।’’ इससे उनके मन में साधकों के प्रति विद्यमान वात्सल्यभाव दिखाई देता है ।
१ आ. दुर्गाजी के हाथों में बहुत पीडा होती है; परंतु तब भी के सेवाकेंद्र के साधकों के लिए कभी-कभी अल्पाहार बनाने की सेवा करती हैं ।
१ इ. साधकों को कभी शारीरिक कष्ट हुए, तो दुर्गाजी उन्हें चिकित्सा के लिए चुंबकों का (मैग्नेट्स) का उपयोग करने के लिए कहती हैं और उनका उपयोग कैसे करना है, यह साधकों को सिखाती हैं ।
२. सेवा की लगन
२ अ. शारीरिक और आध्यात्मिक कष्ट होते हुए भी सकेरे शीघ्र जागकर ध्यानमंदिर में पूजा करने की सेवा भावपूर्ण पद्धति से और समय रहते पूरी करना : दुर्गाजी मूलतः धनबाद (झारखंड) की निवासी हैं । के विगत २० वर्षों से साधना कर रही हैं । वर्ष २०१३ में के वाराणसी सेवाकेंद्र में पूर्णकालीन सेवा करने आई हैं । उन्हें शारीरिक और आध्यात्मिक कष्ट भी हैं । उन्हें निरंतर पीडा होती है; परंतु इस स्थिति में भी के विगत ६ वर्षों से वाराणसी सेवाकेंद्र के ध्यानमंदिर में पूजा करने की सेवा करती हैं । उन्हें शारीरिक कष्टों के निवारण हेतु प्रतिदिन सकेरे कुछ यायाम और चुंबकीय चिकित्सा करनी पडती है । उसके लिए के सकेरे शीघ्र जागकर अपनी यक्तिगत चिकित्सा पूरी कर पूजा करने की सेवा भावपूर्ण पद्धति से और समय रहते पूरी करती हैं ।
२ आ. सेवा के प्रति मन में भाव होने के कारण चाहे कितने भी कष्ट क्यों न हों; परंतु तब भी लगन और मन से सेवा करना : वाराणसी में कई बार वातावरण प्रतिकूल होता है । यहां गर्मी की ऋतु में बहुत गर्मी और ठंड की ऋतु में बहुत ठंड होती है; परंतु ऐसी किसी भी स्थिति में उनकी सेवा प्रभावित नहीं होती । इस सेवा में उन्होंने अभीतक कभी छूट नहीं ली है । ध्यानमंदिर का फर्श पोंछने की सेवा करते समय उन्हें नीचे झुकना नहीं होता; इसलिए जब उनकी सहायता के लिए पूछा गया, तब के ‘मुझसे अधिक सेवा नहीं होती; इसलिए मैं धीरे-धीरे सेवा करती हूं’, ऐसा बताकर के स्वयं ही वह सेवा करती हैं । उनके मन में सेवा के प्रति भाव होने के कारण चाहे उन्हें कितने भी कष्ट क्यों न हों; परंतु के लगन एवं मन से सेवा करती हैं ।
२ इ. सेवाकेंद्र में कहीं भी हों, अचूकता से समय का स्मरण रखकर समय रहते सभी मंत्रजप चलाना और कहीं बाहर जाने पर मंत्रजप चलाने का स्मरण कराना : दुर्गाजी के पास पूजा की सेवा के साथ ही सेवाकेंद्र में दिनभर मंत्रजप चलाने की सेवा भी है । यह सेवा के अत्यंत भावपूर्ण पद्धति से करती हैं । के सेवाकेंद्र में भले कहीं भी हों और उन्हें अन्य कोई सेवा हो; परंतु अचूकता से उन्हें मंत्रजप चलाने के समय का स्मरण होता है । के अचूक समय पर मंत्रजप चलाती हैं । एक बार के अपनी लडकी के पास देहली गई थीं, उस समय मंत्रजप चलाने की सेवा आश्रम की ही एक दूसरी साधिका को सौंपी गई थी । तब आरंभ के कुछ दिनोंतक दुर्गाजी ने मंत्रजप चलाने के समय पर दूरभाष कर मंत्रजप चलाने का स्मरण कराती थीं । इससे उनके मन में सेवा के दायित्व का कितना भान रहता है, यह सीखने को मिला ।
२ ई. सेवा में आनेवाली बाधाओं के संदर्भ में समय-समय पर पूछकर तथा दायित्व लेकर सभी सेवाएं करने का प्रयास करना : दुर्गाजी को कोई भी सेवा बताई गई, तो के उसका दायित्व लेकर पूरा करने का प्रयास करती हैं और उसमें आनेवाली बाधाओं के संदर्भ में समय-समय पर पूछती हैं । यदि समस्या का समाधान नहीं हुआ, तो जबतक उस समस्या का समाधान नहीं होता, तबतक के विनम्रता के साथ पूछकर सेवा पूरी करती हैं । अभीतक उन्होंने केवल १-२ बार पूछा और उसके पश्चात उस सूत्र को छोड दिया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ है ।
२ उ. साधकों से दूरभाष से संपर्क करने की सेवा लगन के साथ करना : दुर्गाजी हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ के पाठकों को अंक मिलने की आश्वस्तता करने हेतु तथा किसी भी कार्यक्रम की सूचना देने हेतु दूरभाष से संपर्क करने की सेवा करती हैं । वाराणसी और बिहार के सभी जनपदों को कई बार दूरभाष करने पडते हैं; परंतु दुर्गाजी यह सेवा बहुत ही लगन के साथ करती हैं । इसमें कई बार ऐसा होता है कि कोई किसी समय दूरभाष नहीं उठाता । तब उन्हें पुनः संपर्क करना पडता है । यह भी के अत्यंत भावपूर्ण पद्धति से और लगन के साथ करती हैं । (कुछ दिन पूर्व दूरभाष से संपर्क करने हेतु साधकों के समूह बनाए गए थे । तब सभी समूहसेवकों को ‘दुर्गाजी उनके ही समूह में होनी चाहिए’, ऐसा लगा । के दिन में बहुत ही मन से लगभग ५० दूरभाष करती हैं ।’ – पू. नीलेश सिंगबाळजी)
२ ऊ. शारीरिक और आध्यात्मिक कष्ट होते हुए भी सेवा में कभी भी छूट न लेना : तीक्र शारीरिक एवं आध्यात्मिक कष्ट होते हुए भी उनकी दिनचर्या प्रातः ५ बजे आरंभ होती है । अभीतक इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है । के कभी भी सेवा में छूट नहीं लेतीं । के दोपहर के समय अल्प समय विश्राम करती हैं । उनमें ‘मुझसे अधिकाधिक समयतक सेवा होनी चाहिए’, इसकी आंतरिक लगन होती है ।
२ ए. निरंतर सेवारत रहना : कभी किसी कारणवश उनके पास सेवा उपलब्ध न हो अथवा अल्प समयतक उपलब्ध हो, तो के इस आयु में भी अनाज चुनना आदि सेवा स्वयंस्फूर्ति से करती हैं । उनकी गर्दन में पीडा होती है; परंतु के ‘समय यर्थ न हो’; इसके लिए जितना संभव हो सके, उतने समयतक अनाज चुनने की सेवा करती हैं । कोरोना संकट के पूर्व के कभी-कभी सेवाकेंद्र के परिसर में प्रसार की सेवा में भी जाती थीं । ‘गुरुपूर्णिमा हेतु अथवा अन्य किसी भी कार्यक्रम के लिए प्रसार करना, अर्पण लेना, ‘सनातन प्रभात’ के वर्गणीदार बनाना आदि सेवाओं में भी सम्मिलित होती हैं ।
३. चाहे सेवाकेंद्र हो अथवा प्रसार की सेवा हो, नई सेवाएं सिखने में रुचि
४. दुर्गाजी प्रतिदिन नामजपादि उपाय और मंत्रजप पूरा करती हैं । उसमें के कभी भी छूट नहीं लेतीं ।
५. दुर्गाजी सत्संग के अथवा अन्य समय में बहुत प्रेम और विनम्रता से साधकों की चूकें बताती हैं ।
६. यावहारिक दायित्व का अच्छे प्रकार से निर्वहन करना
काकू वाराणसी सेवाकेंद्र में रहती हैं; परंतु जब परिवार में कभी उनकी आवश्यकता होती है, तब के वहां भी दायित्व लेकर उसमें ध्यान देती हैं । परिवार में के बडी हैं; इसलिए के किसी के विवाह अथवा घर के अन्य कार्यक्रम में दायित्व लेकर भाग लेती हैं । परिवार के लोगों की साधना हो; इसके लिए उन्हें नामजप बताना और उनसे धर्मकार्य हेतु अर्पण लेना जैसे प्रयास भी के करती हैं ।
७. संतों के प्रति भाव
एक बार सेवाकेंद्र में पू. नीलेश सिंगबाळजी ने दुर्गाजी से सेवाकेंद्र के ध्यानमंदिर में पूजा करने की सेवा के संदर्भ में कहा था, ‘‘आप यह सेवा इतनी भावपूर्ण कीजिए कि इसी सेवा से आपकी आध्यात्मिक प्रगति हो जाए ।’’ उस दिन से दुर्गाजी पूजा की प्रत्येक कृति भावपूर्ण करने का प्रयास करती हैं ।
८. पूजा की तैयारी और सेवा करते समय शबरीमाता की भांति भाव होना दुर्गाजी ने मुझसे २-३ बार कहा कि ‘पूजा करने की सेवा मिलना मेरे लिए परात्पर गुरुदेवजी का वरदान ही है । एक बार मैंने साधकों से कहा, ‘‘सकेरे की पूजा के लिए बाग से फूल लाने की सेवा किसी दूसरे साधक ने की, तो उससे दुर्गाजी का उतना समय बचेगा । तब के कहने लगीं, ‘‘नहीं, मैं ही सकेरे थोडा शीघ्र जाग जाऊंगी; परंतु यह सेवा मुझे ही करने दीजिए ।’’ पूजा की तैयारी और सेवा करते समय उनका भाव शबरीमाता की भांति प्रतीत होता है ।
– पू. नीलेश सिंगबाळजी
९. प्रतीत हुए बदलाव
अ. सहसाधकों के साथ कुछ प्रसंग होने पर आरंभ में उसे स्वीकार करना उनके लिए कठिन होता था; परंतु अब के तुरंत ही अपनी पास न्यूनता लेने का प्रयास करती हैं । सेवाकेंद्र में ऐसा कुछ प्रसंग हुआ, तो के तुरंत ही विनम्रता के साथ ‘इस संदर्भ में साधना के दृष्टिकोण से क्या करना उचित है ?’, यह पूछ लेती हैं और उस प्रसंग से बाहर निकलने का प्रयास करती हैं ।
आ. अन्यों को समझने के उनके प्रयास भी अच्छे हैं ।
इ. पहले स्वयं की शारीरिक स्थिति के संदर्भ में उनके मन का बहुत संघर्ष होता था । उनके मन में ‘मैं कुछ सेवा नहीं कर सकती’, ऐसे नकारात्मक विचार आते थे । (वास्तव में उनसे सेवा हो रही थी; परतुं उनके मन में ‘मैं अल्प पडती हूं’, इस आशय के विचार आते थे ।) और तब के निराश हो जाती थीं; परतुं अब उनमें परिस्थिति और प्रसंग स्वीकार करने की वृत्ति बढने से उनका मन पहले की तुलना में आनंदित और स्थिर लगता है ।
‘हे परमदयालु परात्पर गुरुदेवजी, आपकी कृपा से ही मुझे साधकों के साथ रहकर सीखने का अवसर प्राप्त हुआ; इसके लिए मैं आपके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञ हूं ।’
– श्रीमती श्रेया प्रभु, वाराणसी (४.८.२०२०)