History & Truth Of Religious Places : इससे पूर्व धार्मिक स्थलों पर अतिक्रमण किए जाने का इतिहास तथा सच्चाई सामने आना आवश्यक !

हिन्दुत्वनिष्ठ ‘द ऑर्गनाइजर’ नियतकालिक की भूमिका !

नई देहली – ऐतिहासिक दृष्टि से जिन धार्मिक स्थलों पर इससे पूर्व अतिक्रमण किए जाने का इतिहास है, ऐसे स्थलों की सच्चाई सामने आना आवश्यक है तथा ऐसा होना संस्कृतिमूलक न्याय के लिए आवश्यक है, ऐसी भूमिका रा.स्व. संघ के विचारों से संबधित नियतकालिक ‘द ऑर्गनाइजर’ के मुख्य लेख तथा संपादकीय में रखी गई है । इस नियतकालिक में प्रकाशित लेख में संभल की शाही मस्जिद के विवाद का सूत्र उठाया गया है । इस शाही मस्जिद के स्थान पर पहले श्री हरिहर मंदिर था, ऐसा बताया जा रहा है । इस लेख में कहा गया है कि संभल में इस प्रकार के सामाजिक संघर्ष का इतिहास रहा है ।

इस नियतकालिक के लेख में लेखक आदित्य कश्यप ने कहा है कि ऐतिहासिक दृष्टि से हुए चूकों का स्वीकार करना, तो एक प्रकार से हुए अन्याय को स्वीकार करने जैसा ही है । इससे आगे बातचीत का तथा घाव भरने की प्रक्रिया का आरंभ हो पाएगा, साथ ही इससे समाज एकत्र होने में सहायता मिलेगी; क्योंकि पारदर्शिता से परस्पर सामंजस्य एवं सम्मान बढेगा ।

यह लडाई धार्मिक वर्चस्ववाद की नहीं है, अपितु हमारी राष्ट्रीय पहचान स्पष्ट करने के संदर्भ में है !

प्रत्येक हिन्दू में इस प्रकार से सुस्पष्टता उत्पन्न होकर उसे अपनी क्षमता के अनुसार इस ऐतिहासिक राष्ट्रकार्य में सम्मिलित होना चाहिए ।

संपादकीय में आगे कहा गया है कि,

१. मानवीय संस्कृतिमूलक न्याय की हो रही मांग का संज्ञान लेने का समय अब आ चुका है ।

२. बाबासाहब अंबेडकर ने भी जाति पर आधारित भेदभाव के कारणों की जड में जाकर उसके लिए संवैधानिक उपाय दिए ।

३. धार्मिक असंतोष समाप्त करने हेतु हमें भी उसी प्रकार के दृष्टिकोण की आवश्यकता है । मुसलमान समुदाय ने इस सच्चाई का स्वीकार किया, तभी यह संभव हो पाएगा । इतिहास की सच्चाई का स्वीकार करने का यह दृष्टिकोण भारतीय मुसलमानों को मूर्तिभंजन के पापियों तथा धार्मिक वर्चस्ववाद की भूमिका से स्वतंत्र रखेगा । उसके बिना संस्कृतिमूलक न्याय का संज्ञात लेते हुए शांति एवं सौहार्द की आशा जागृत करेगा ।

४. छद्म धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करनेवाले कुछ विशिष्ट बुद्धिजिवियों के आग्रह के झांसे में आकर इस प्रकार से न्याय एवं सच्चाई जान लेने का अधिकार अस्वीकार करने से कट्टरतावाद, अलगाववाद तथा शत्रुता को प्रोत्साहन दिया जा सकता है ।

५. सोमनाथ से लेकर संभल तक तथा उससे भी आगे के स्थलों की सच्चाई जान लेने की यह लडाई धार्मिक वर्चस्ववाद की नहीं है । यह लडाई तो हमारी राष्ट्रीय पहचना स्पष्ट करने के संदर्भ में है ।