साधक में विद्यमान भाव कैसे कार्य करता है ?

श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी द्वारा बताए अमृत वचन

१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मर्दन (मालिश) की सेवा कर आए साधक में भाव अल्प होने से उसकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी; परंतु उस साधक की ओर देखने का अन्य साधक का भाव अच्छा होने से उस अन्य साधक को संतों के चैतन्य का अधिक लाभ होना : ‘पूर्व में एक साधक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का मर्दन (मालिश) करने की सेवा करता था  । एक बार उसे हो रहे आध्यात्मिक कष्ट के कारण उसकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी । परात्पर गुरु डॉक्टरजी को मर्दन (मालिश) कर आने पर अन्य साधकों के साथ वह सामान्य की भांति सेवा से संबंधित कुछ विषयों पर बात कर रहा था । संतसेवा करनेवाले उस साधक को देखकर अन्य एक साधक मन ही मन बहुत आनंदित हुआ तथा उसकी भावजागृति होने लगी । उस समय उस साधक का भाव कुछ ऐसा था, ‘जिस साधक को संतों का प्रत्यक्ष सत्संग प्राप्त होता है, साथ ही जिस साधक को स्थूल से उनकी सेवा करने को मिलती है, उस साधक का मुझे सान्निध्य मिल रहा है’, यह मेरा परम सौभाग्य है ।’ उसके कारण संतों की सेवा करनेवाले साधक के चरणों में भी उस साधक की कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी; परंतु प्रत्यक्ष संतसेवा करनेवाले साधक की मानसिक स्थिति अंदर से अच्छी नहीं थी । प्रत्यक्ष संतसेवा करने पर भी भाव के अभाव के कारण वह अंदर से निर्लिप्त (सूखा) ही रह गया था ।

संतसेवा करनेवाले साधक की स्थिति भले ही अच्छी नहीं हो; परंतु उसकी ओर देखनेवाले साधक का भाव अच्छा होने के कारण संतसेवा करनेवाले साधक की अपेक्षा अन्य साधक को संतों के चैतन्य का अधिक लाभ मिला ।

२. साधक द्वारा भावजागृति हेतु किए गए प्रयासों के कारण ‘ईश्वर को सर्वत्र कैसे देखना चाहिए’, यह सीखने को मिलने से साधना में स्वयं की प्रगति करना संभव : ‘जहां भाव वहां ईश्वर’, ऐसा क्यों कहा जाता है’, इससे यह ध्यान में आता है । भावसत्संग में जो भावप्रयोग बताए जाते हैं तथा भावजागृति हेतु हम जो प्रयास करते हैं, वे केवल साधक को आनंद एवं उत्साह दिलाने तक ही सीमित नहीं होते, अपितु ऐसे प्रयास अन्यों के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी उचित परिवर्तन लाते हैं । इससे साधक ‘सवर्त्र ईश्वर को देखना’ सीखता है तथा प्रगति करता है ।’

– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी