साधको, जिन पर स्वयं की सेवाओं का दायित्व है, उन साधकों को समझो !
‘सनातन का कार्य तीव्र गति से बढ रहा है । ‘कार्य अधिक; परंतु उसे करनेवाले साधकों की संख्या अल्प’, सभी सेवाओं के संदर्भ में यही स्थिति है । अनेक साधकों को जिन पर उनकी सेवाओं का दायित्व होता है, उनके प्रति ‘ये साधक बहुत ही सेवा बताते हैं, सदैव चूकें दिखाते हैं, सेवा पूर्ण करने को लेकर निरंतर समीक्षा करते रहते हैं, हमारी स्थिति को समझते नहीं’, जैसी समस्याएं रहती हैं । उत्तरदायी साधकों का ‘साधकों से सेवा पूर्ण करवाने हेतु उन्हें प्रेमपूर्वक समझना’ उनकी समष्टि साधना का ही एक भाग है । इसमें अनेक बार उत्तरदायी साधकों के प्रयास कम पडते हैं; इसलिए इस संदर्भ में उन्हें अपने प्रयास बढाने चाहिए ।
साधकों ने भी ‘हम स्वयं उत्तरदायी साधक हैं’, इस भूमिका में जाकर विचार किया, तो उन्हें उन साधकों को समझना सरल होगा, उनकी समस्याएं भी ध्यान में आएंगी तथा उनके प्रति एक प्रकार की नकारात्मक अथवा कडवाहट की भावना अल्प होने में सहायता मिलेगी । इस संदर्भ में साधक स्वयं से निम्न प्रश्न पूछें –
१. उत्तरदायी साधकों को हमारी सभी समस्याएं ध्यान में आएंगी ही, ऐसा नहीं है । ऐसी स्थिति में हमें स्वयं अथवा अन्य किसी की सहायता लेकर उन समस्याओं के संदर्भ में उत्तरदायी साधकों को खुले मन से बताना अपेक्षित है । इसके द्वारा ‘हमारे मन का संघर्ष अल्प करने के साथ ही उत्तरदायी साधक यदि कहीं चूक रहे हों, तो उन्हें उसका ध्यान दिलाकर ‘उनकी साधना में सहायता करना’ हमारी साधना का ही भाग है, क्या हम इसपर ध्यान देते हैं ?
२. साधकों ने ‘उत्तरदायी साधकों के माध्यम से गुरुदेवजी ही हमें सेवा बता रहे हैं तथा वे ही हमसे उसे पूर्ण करवानेवाले हैं’, यदि यह भाव रखा, तो ‘सेवा में मन का संघर्ष न होकर सेवा आनंदपूर्ण तथा निर्धारित समय-सीमा में पूर्ण होती है’, अनेक साधकों ने ऐसी अनुभूति ली है ।’ क्या हम ऐसा भाव रखने का प्रयास करते हैं ?, साधक इसका भी निरीक्षण करें ।
३. उत्तरदायी साधक हमें बताई सेवाओं की समीक्षा करते (फॉलोअप लेते) हैं तथा साधना के प्रयासों के विषय में हमें बार-बार बताते हैं, यदि हमने इसे साधना की दृष्टि से स्वीकार कर उस दिशा में प्रयास किए, तो हमारी ही आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होगी ।
४. उत्तरदायी साधकों के बताए अनुसार हमें सेवाएं ठीक से संभव नहीं होतीं अथवा समय रहते पूर्ण नहीं होतीं, तो इसके पीछे हमारे ‘सुचारु नियोजन का अभाव, कार्यपद्धतियों का पालन न करना तथा सेवा से संबंधित अध्ययन अल्प पडना’ जैसे स्वभावदोष होते हैं । क्या हम मन:पूर्वक इन दोषों का चिंतन कर उन्हें दूर करने हेतु प्रामाणिकता से प्रयास करते हैं ?
५. ‘उत्तरदायी साधक हमारी समस्याएं नहीं समझते’, अपनी इस समस्या को वरिष्ठों के सामने रखते समय कभी-कभी हम आधे-अधूरे अथवा एकतरफा पद्धति से अथवा अपनी सुविधा के अनुसार अपनी समस्याएं रखते हैं । ‘ऐसा करना साधना की दृष्टि से अनुचित है’, क्या हमें इसका विचार रहता है ?
६. कभी-कभी ‘मुझे बहुत कुछ आता है’, यह अहं होने के कारण हमारे द्वारा उत्तरदायी साधक को नीचा दिखाना, उनके द्वारा कोई निर्णय मिलने में विलंब हुआ, तो उसका कारण जाने बिना उसके संदर्भ में प्रतिक्रिया व्यक्त करना तथा उनके प्रति अन्य साधकों में नकारात्मकता फैलाने जैसे कृत्य होते हैं । ‘ऐसा कर कहीं हम अपनी ही साधना की हानि तो नहीं कर रहे हैं’, क्या हम इसे ध्यान में लेते हैं ?
७. उत्तरदायी साधक सदैव सेवाओं की समीक्षा क्यों करते हैं ?, इसका कारण यह है कि उन्हें उनके दायित्व के अंतर्गत आनेवाली सभी सेवाओं का ब्योरा अन्य उत्तरदायी साधकों को देना होता है । अनेक सेवाएं निर्धारित समय-सीमा में पूर्ण करनी होती हैं । गुरुकार्य की हानि न हो, इसके लिए समय-सीमा का पालन करना अनिवार्य है । इसलिए उत्तरदायी साधक स्वयं भी बहुत परिश्रम उठाते हुए प्रयत्नशील रहते हैं । क्या हम उनके द्वारा सेवा की समीक्षा करने के इस कारण को समझने का प्रयास करते हैं ?
८. उत्तरदायी साधक सदैव चूकें क्यों बताते हैं ? ‘चूकों के कारण हमारी साधना व्यय न हो तथा हम गुरुकार्य हेतु शीघ्र तैयार हों’, उनके मन में केवल यही निर्मल इच्छा होती है । क्या हम उनके इस प्रेम को समझ पाते हैं ?
९. उत्तरदायी साधकों पर अनेक सेवाओं का दायित्व होता है । ऐसे हुए भी उन पर भी हमारी भांति ही शरीर, मन एवं बुद्धि की मर्यादाएं हैं; परंतु इसके पश्चात भी वे गुरुकार्य हेतु शरीर, मन एवं बुद्धि का बहुत त्याग करते हैं । क्या हमारे मन में इसके प्रति कृतज्ञता का भाव होता है ?
१०. हम जब वरिष्ठों के सामने उत्तरदायी साधकों से संबंधित समस्याएं रखते हैं, उस समय क्या हम अभी तक उन साधकों द्वारा हमारे लिए की गई प्रेमपूर्ण कृतियों के विषय में बताते हैं ?
११. हमें दी गई एक सेवा पूर्ण करना सरल होता है; परंतु उत्तरदायी साधकों की भांति अनेक सेवाओं का दायित्व लेकर उन्हें पूर्ण करना कठिन होता है । ‘उनमें विद्यमान गुणों को स्वयं में अंतर्भूत करने का प्रयास करते हैं ?
– (पू.) संदीप आळशी (७.८.२०२४)