आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण

सनातन का ग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’ का कुछ भाग १ से १५ अक्टूबर के अंक में पढा । आज आगे के दृष्टिकोण देखेंगे ।

सनातन के लघुग्रंथ का मुखपृष्ठ

७. आध्यात्मिक उपचारों के संदर्भ में उपयुक्त दृष्टिकोण

७ ए. नामजप अधिक प्रभावकारी होने के लिए आवश्यक प्रयास

७ ए १. तीव्र गति से नामजप करने का महत्त्व : कभी-कभी कष्ट की तीव्रता बहुत बढ जाने से नामजप करते समय बार-बार ध्यान विचलित होता है तथा उसे भावपूर्ण करने का चाहे कितना भी प्रयास करें, तब भी वह भावपूर्ण नहीं हो पाता । ऐसे समय में तीव्र गति से नामजप करें, उससे ध्यान अधिक विचलित नहीं होता ।

७ ए २. नामजप अखंड होने हेतु आवश्यक प्रयास

 अ. करमाला अथवा गणकयंत्र (काउंटर) की सहायता से निरंतर नामजप करने का प्रयास करें ।

आ. नामजप अखंड होने हेतु बीच-बीच में प्रार्थना करें ।

 इ. नामजप अखंड होने हेतु स्वसूचना (auto suggestion) लें – ‘जब मैं किसी से बात कर रहा होऊंगा अथवा मेरे मन में उपयुक्त विचार नहीं होंगे, तब तुरंत ही मेरा नामजप आरंभ होगा ।’ (सनातन के ग्रंथ ‘स्वसूचनाओं द्वारा स्वभावदोष-निर्मूलन’, में विस्तार से स्वसूचनाओं का विवेचन किया गया है ।)’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी (२०.८.२०१६)

७ ऐ. आध्यात्मिक उपचार करने हेतु आवश्यक, मन की शक्ति का सकारात्मक दृष्टिकोण पर निर्भर होना : ‘एक बार अत्यंत थकान एवं पीडा के कारण आध्यात्मिक उपचार करने के लिए बैठने पर मेरा मन नहीं लग रहा था । उस समय भगवान की कृपा से मेरे मन में एक सकारात्मक विचार आया, उसके उपरांत मन की शक्ति थोडी बढ गई । उसके कारण उपचार करने में थोडा ध्यान लगने लगा । उससे मन की शक्ति थोडी और बढी तथा उपचार अच्छे होने लगे । ऐसा होते-होते आगे जाकर पूरा एक घंटा अच्छे उपचार हुए । इससे यह समझ में आया कि मन की शक्ति बढने हेतु सकारात्मक विचार कितना आवश्यक है । इससे जीवन में सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखने का महत्त्व ध्यान में आता है ।

     ‘अमुक एक बात मुझे संभव ही नहीं होगी’, ऐसा नकारात्मक विचार किया, तो वह कार्य चाहे कितना भी सरल क्यों न हो, तब भी संभव नहीं होता । इसके विपरीत ‘अमुक एक कार्य मुझे संभव होगा ही’, ऐसा सकारात्मक विचार किया, तो वह कार्य चाहे जितना भी कठिन हो; परंतु संभव होता है !’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी (१६.१०.२०२०)

७ ओ. उपचारों को प्रभावकारी पद्धति से करने में निरंतरता रखना आवश्यक ! : जब हम उपचार करते हैं, उस समय अनिष्ट शक्तियां उसमें बाधाएं भी उत्पन्न करती हैं । उसके कारण उपचार करना उबाऊ लगना, नामजप पर ध्यान केंद्रित न होना आदि कष्ट होते हैं । उसके कारण उपचार प्रभावकारी नहीं होते । ऐसा न हो; इसके लिए निम्न दृष्टिकोण ध्यान में रखें – ‘कोई बडी सफलता प्राप्त करते समय बीच-बीच में हमारे प्रयासों का बल अल्प पडने से अथवा मार्ग में उत्पन्न बाधाओं के कारण हमें असफलता मिल सकती है’, हमें इसे मानकर चलना होगा । वह असफलता भी महत्त्वपूर्ण होती है; क्योंकि उससे सीखकर ही हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं ।

    ‘प्रयास करते समय चाहे असफलता ही मिले, तब भी हार न मानकर उत्साह के साथ प्रयास करते रहना’ ही प्रयासों की निरंतरता है ।

८.  कष्टों पर विजय प्राप्त करने हेतु साधना एवं भक्ति बढाएं !

पू . संदीप आळशी

८ अ. साधना की लगन बढाना : मध्यम से तीव्र स्तर पर कष्ट से ग्रस्त अनेक साधकों को यह अनुभव होता है कि उनके द्वारा साधना के प्रयास अच्छे ढंग से आरंभ करने के २-४ दिनाें के उपरांत वे किसी न किसी कारण खंडित हो जाते हैं । इसमें सामान्यतः ६० प्रतिशत भाग होता है – ‘अनिष्ट शक्तियों द्वारा साधना का विरोध’ तथा ४० प्रतिशत भाग होता है – ‘साधकों में साधना की लगन अल्प होना’ । साधक जैसे ही थोडे अच्छे प्रयास करना आरंभ करते हैं, तो अनिष्ट शक्तियां तुरंत ही उनके कदम पीछे खींचती हैं । ऐसा पुनः-पुनः होने से साधक निराश हो जाते हैं तथा आगे जाकर प्रयास करना ही छोड देते हैं । इस संदर्भ में साधक निम्न दृष्टिकोण ध्यान में रखें –

     अंदमान जैसी अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वीर सावरकर जो कर पाए, हमारे लिए उतनी प्रतिकूल परिस्थिति तो नहीं है । तो  हम क्यों नहीं कर पाएंगे ? साधकों को अनिष्ट शक्तियों के द्वारा होनेवाले विरोध के सामने झुके बिना क्षात्रवृत्ति से, भाव के स्तर पर तथा दृढतापूर्वक साधना के प्रयास करने चाहिए । ऐसा होने पर विजय साधकों की ही होगी !

८ आ. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन के प्रयास बढाना : स्वभावदोषों के कारण व्यक्ति के मन तथा शरीर में सूक्ष्म घाव बन जाते हैं । इन सूक्ष्म घावों से रज-तमात्मक स्पंदन उत्पन्न होते हैं । ऐसे व्यक्तियों को अनिष्ट शक्तियों के कष्ट भी अधिक मात्रा में होते हैं, साथ ही स्वभावदोष के कारण अनिष्ट शक्तियों के कष्टों के निवारण हेतु किए आध्यात्मिक उपचारों की प्रभावकारिता भी घट जाती है । अहं अनेक स्वभावदोषों का मूल है । इसके लिए साधकों को स्वयं के स्वभावदोष एवं अहं के पहलुओं का चिंतन कर उन्हें दूर करने हेतु निरंतर प्रयास करते रहना आवश्यक है । उसके लिए ‘स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया (७ खंड),’ सनातन की इस ग्रंथमाला का लाभ उठाएं !

८ इ. आध्यात्मिक उपचार, स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया भावपूर्वक होने के लिए क्या करें ?

८ इ १. ‘स्वयं को प्रयास करने की तीव्र आवश्यकता प्रतीत हो’, ऐसा करें : आध्यात्मिक उपचार यदि लगन से नहीं किए, तो आध्यात्मिक कष्ट अल्प न होने से पूरा जीवन कष्ट एवं दुख भोगना पडता है । स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया यदि लगन से नहीं अपनाई, तो इस जन्म में अपेक्षित प्रगति तो होती ही नहीं; अपितु अगले जन्म में भी वो स्वभावदोष एवं अहं हमारे साथ पुनः चले आते हैं । ऐसे विचारों को मन पर निरंतर अंकित किया, तो हमें प्रयास करने की तीव्र आवश्यकता प्रतीत होने लगती है । तब जाकर हमसे लगन के साथ प्रयास होते हैं ।

८ ई. गुरुदेवजी के प्रति श्रद्धा बढाना : ‘विभिन्न जीवनाडी-पट्टिकाओं के (नाडी-भविष्य के) माध्यम से महर्षियों ने बताया है, ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी साक्षात श्रीविष्णुस्वरूप हैं तथा वे मोक्षगुरु हैं’ ! जहां ऐसे परात्पर गुरु डॉक्टरजी हमारे साथ हैं, तो वहां साधकों को आध्यात्मिक कष्टों के प्रति भय, चिंता एवं शोक क्यों करना चाहिए ? ‘हम हैं आपके चरणों के सेवक । आप हो हमारी देह के रक्षक ।।’ प.पू. भक्तराज महाराजजी की इस भजनपंक्ति के अनुसार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने आज तक साधकों को सभी प्रकार से संभालकर रखा है । ‘इसके आगे भी वे हमारे साथ ही हैं’, साधक यही दृढ श्रद्धा रखकर साधना में आगे बढें ।’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी

८ उ. साधना एवं भक्ति बढाना ही कष्टों का स्थाई समाधान ! : ‘वर्तमान समय में काल प्रतिकूल होने के कारण साधकों को अधिक मात्रा में अनिष्ट शक्तियों के कष्ट हो रहे हैं । एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने नियतकालिक ‘सनातन प्रभात’ में एक चौखट में लिखा था, ‘कागद पर बनाई एक रेखा को छोटा करना हो, तो उसके बाजू में दूसरी बडी रेखा खींची जाए, तो पहली अपनेआप ही छोटी हो जाती है‘, इस सिद्धांत के अनुसार अनिष्ट शक्तियों के कष्ट दूर करने हेतु आध्यात्मिक उपचार करने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, ‘हमारी साधना एवं भक्ति बढाकर भगवान को प्रसन्न करना !’ एक बार जब भगवान प्रसन्न होंगे, तो उसके उपरांत क्या अनिष्ट शक्तियां हमें कष्ट पहुंचा पाएंगी ? ‘भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै । !

।’, संतश्रेष्ठ तुलसीदासजी का यह वचन है । महाबीर का अर्थ है हनुमानजी ! संतवचन कभी असत्य नहीं होता । हमारे नामजप में तथा भक्ति में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि उसके कारण भगवान को हमारे लिए दौडकर आना ही पडे !

    साधको, विधि ने हमें साधना एवं भक्ति की पराकाष्ठा की मानो चुनौती दी है, ऐसा मानकर श्री गुरुदेवजी का स्मरण कर हम इस चुनौती को स्वीकार करेंगे ! उसके उपरांत देखें… अंततः विजय हमारी ही है !’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी (२२.५.२०१६)

९. आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त साधकों को प्रेमपूर्वक समझना अन्यों की साधना ही है !

अ. ‘आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त साधकों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक क्षमता को समझकर उन्हें प्रेमपूर्वक संभालना’ हमारी साधना ही है ।

 आ. कष्ट से ग्रस्त साधकों को निरंतर प्रोत्साहित करते रहें । उससे उनका उत्साह बना रहता है और कष्टों पर विजय प्राप्त करने हेतु प्रयास करने की उनकी क्षमता बढती है ।

 इ. कष्ट से ग्रस्त अधिकतर साधकों में अकेलेपन की भावना अथवा निराशा होती है । उन्हें समष्टि में सम्मिलित कर लेने तथा उनपर प्रीति (निरपेक्ष प्रेम) करने से उनके अकेलेपन की भावना अथवा निराशा को अल्प (कम) किया जा सकता है ।                (समाप्त)

।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

     (पढें : सनातन का लघुग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’)

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आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और तीव्र आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।