भगवान के द्वारा इस वर्ष अनेक साधकों का आध्यात्मिक स्तर उतना ही रखने के कारणों के पीछे की गुरुदेवजी की कृपा का रहस्योद्घाटन !
‘प्रतिवर्ष गुरुपूर्णिमा के दिन आत्मोन्नतिदर्शक सारणी प्रकाशित होती है । इस सारणी में गुरुदेवजी सूक्ष्म से अवलोकन कर ‘६० प्रतिशत तथा उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त साधकों का आध्यात्मिक स्तर कितना प्रतिशत है ?’, यह बताते हैं । प्रतिवर्ष कुछ साधकों का स्तर न्यून होता है, कुछ साधकों का उतना ही रहता है, जबकि कुछ साधकों का स्तर बढा होता है । वर्ष २०२४ में कुछ साधकों का स्तर बढा; परंतु अनेक साधकों का स्तर उतना ही बना रहा । यह सूत्र समझ में आने पर मेरे मन में ‘हम साधक साधना में कहां अल्प पड गए; इसलिए गुरुदेवजी के अनेक साधकों का स्तर उतना ही बना रहा’, यह विचार आने लगा । उस पर भगवान ने साधकों का आध्यात्मिक स्तर न बढकर वह उतना ही बने रहने के पीछे का बताया हुआ आध्यात्मिक कार्यकारणभाव बताते हुए मुझे निम्न दृष्टिकोण दिए ।
१. आपातकाल का सामना करने में साधकों की साधना का व्यय होना
इसमें साधकों के प्रयास अल्प नहीं हुए हैं, अपितु वर्तमान समय में चल रहे आपातकाल का सामना करने में साधकों की ३० प्रतिशत साधना का व्यय हुआ ।
२. भीषण देवासुर संग्राम में साधकों को जीवित रखने हेतु उनकी साधना का व्यय होना
वर्तमान समय में सूक्ष्म से देवासुरों का घनघोर युद्ध चल रहा है । उसके कारण सूक्ष्म की अनिष्ट शक्तियां साधकों पर प्राणघातक आक्रमण कर रही हैं । उसके कारण साधकों को विभिन्न प्रकार के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक कष्ट हो रहे हैं । ऐसे इस भीषण देवासुर संग्राम में साधकों को जीवित रखने हेतु उनकी साधना का व्यय हो रहा है ।
३. केवल आध्यात्मिक स्तर के रूप में ही नहीं, अपितु अन्य अनेक प्रसंगों में स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति दिखाई देना
‘आध्यात्मिक स्तर में वृद्धि होने का अर्थ प्रगति’, ऐसा नहीं है; अपितु कार्यकर्ता का रूपांतरण साधक में होना तथा साधक का रूपांतरण शिष्य में होना, स्वयं की साधना के संदर्भ में अंतर्मुखता बढना, व्यष्टि एवं समष्टि साधना अधिक भावपूर्ण एवं परिपूर्ण होना, समष्टि का उत्तरदायित्व लेकर समष्टि साधना करना, ईश्वर के साथ आंतरिक सान्निध्य बढना, भाव की स्थिति में वृद्धि होना, अनेक प्रतिकूल प्रसंगों में स्थिर रहकर प्रसंग का धैर्य के साथ सामना करना संभव होना इत्यादि गुरुकृपा के कारण यह प्रगति का ही लक्षण है । अतः साधकों ने ‘मेरा स्तर नहीं बढा’, यह विचार न कर ‘उक्त दिए अनुसार स्वयं में कौनसे सकारात्मक परिवर्तन आए हैं ?’, इसका अंतर्मुख होकर विचार किया, तो अनेक प्रसंगों में उनकी हुई प्रगति दिखाई देती है ।
४. साधकों से सकाम साधना न होकर उनकी निष्काम साधना होने हेतु गुरुदेवजी ने की हुई यह कृपा ही है !
साधकों के मन में ‘स्वयं का आध्यात्मिक स्तर बढने हेतु साधना करना’, यह सकाम उद्देश्य उत्पन्न हुआ है । गुरुतत्त्व ‘साधकों को माेक्ष की प्राप्ति हो’, इसके लिए निरंतर कार्यरत होता है । साधकों से सकाम साधना न होकर उनकी साधना निष्काम होने हेतु भगवान ने इस वर्ष उनसे साधना करवा ली; परंतु उनका आध्यात्मिक स्तर नहीं बताया । उसके कारण साधकों के मन में स्थित सकाम साधना का संस्कार क्षीण होकर निष्काम साधना करने का संस्कार दृढ होनेवाला है ।
५. ‘साधना का ध्येय आध्यात्मिक स्तर बढना नहीं है, अपितु अच्छा साधक एवं शिष्य बनना’, इसका भान होना
हम जब साधना में आए, उस समय हम ६० प्रतिशत अथवा उससे अधिक स्तर प्राप्त करने हेतु नहीं आए हैं, अपितु ‘अच्छा साधक तथा शिष्य बनकर श्री गुरुदेवजी की अखंडित कृपा संपादन करने हेतु आए हैं’, इस ध्येय का साधकों को विस्मरण हुआ है । उसका भान कराने हेतु गुरुदेवजी ने इस वर्ष अनेक साधकों का आध्यात्मिक स्तर नहीं बताया है ।
६. इस पूरे वर्ष में साधकों ने ‘कौनकौन से प्रसंगों में गुरुकृपा का अनुभव किया’, इसका चिंतन करने हेतु गुरुदेवजी द्वारा की गई यह लीला ही होना
साधकों के मन में अज्ञानवश ‘आध्यात्मिक स्तर बढने का अर्थ गुरुकृपा होना’, यह समीकरण बना है । इसके विपरीत साधकों को ‘प्रारब्ध भोग भोगने की शक्ति मिलना, प्राणघातक संकट टलना, परिजनों से स्थित लेन-देन हिसाब समाप्त होना, महामृत्युयोग टलना इत्यादि घटकों के पीछे गुरुकृपा ही कार्यरत होती है’, इसका भान होकर श्री गुरुदेवजी के प्रति कृतज्ञताभाव बढे; इसके लिए साधकों की वृत्ति अंतर्मुख होना आवश्यक होता है । इस वर्ष अनेक साधकों का आध्यात्मिक स्तर घोषित न होने के कारण साधकों की वृत्ति अंतर्मुख होकर उनके मन की निश्चितरूप से यही प्रक्रिया घटित होकर ‘इस पूरे वर्ष में उन्होंने कौनकौन से प्रसंगों में गुरुकृपा का अनुभव किया ?’, इसका चिंतन हो; इसके लिए गुरुदेवजी के द्वारा की गई यह एक लीला ही है । इसलिए उन्हें गुरुकृपा के आनंद का अनुभव होकर उनके हृदय में श्री गुरुदेवजी के प्रति कृतज्ञताभाव जागृत होकर उनकी भाव की स्थिति में वृद्धि होनेवाली है ।
७. कृतज्ञता
भगवान की कृपा से ‘गुरुदेवजी के प्रति निष्काम भाव रखकर अखंडित साधनारत तथा सेवारत रहना, उन्हें अपेक्षित है’, इसका मुझे आत्मबोध हुआ । हे गुरुदेवजी, भगवान ने हमें आपकी दिव्य लीला खोलकर दिखाई, इसके लिए मैं श्री गुरुचरणों में कोटि कोटि कृतज्ञ हूं ।’
– सुश्री मधुरा भोसले (आध्यात्मिक स्तर ६५ प्रतिशत, आयु ४१ वर्षे), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (सूक्ष्म से ज्ञान प्राप्त होने की तिथि २.८.२०२४ दोपहर ४.२५ से ४.५०)
सूक्ष्म : व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रिय हैैं । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है । आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और तीव्र आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं । बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्तियों से हो रही पीडा के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपचार वेदादि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं । |