अध्यात्मशास्त्र के दृष्टिकोण से हस्तरेखा शास्त्र !
‘हस्तरेखा शास्त्र हथेली की रेखाओं के आधार पर व्यक्ति के जीवन को दिशा देने का एक प्राचीन विज्ञान है । हस्तरेखा शास्त्र के द्वारा व्यक्ति का स्वभाव, स्वास्थ्य, बुद्धि, विद्या, कार्यक्षेत्र, प्रारब्ध आदि अनेक बातों का बोध होता है । प्रस्तुत लेख में हस्तरेखा शास्त्र में अध्यात्म से संबंधित बातों का विचार कैसे किया जाता है, इसका विवेचन किया गया है ।
१. हाथ की रेखाओं से व्यक्ति के पूर्वजन्म की साधना तथा वर्तमान जन्म की साधना समझ में आना
हाथ की रेखाओं से व्यक्ति के पूर्व जन्म तथा वर्तमान जन्म की साधना समझ में आ सकती है । मुख्यत: यह हाथ की भाग्यरेखा से (अध्यात्म रेखा से) ध्यान में आता है; परंतु उसके साथ ही हाथ, उंगलियों, मणिबंध (कलाई की रेखाएं) तथा हथेली की अन्य रेखाओं पर चंद्रमा तथा बृहस्पति ग्रहों की दृष्टि पर भी विचार करना होगा । इसके साथ ही ‘व्यक्ति का जीवन कैसे चल रहा है ? क वह सकारात्मक एवं उत्साहित है ? क्या वह जीवन की चुनौतियों को अवसर के रूप में देखता है ? क्या उसके विचारों में सुस्पष्टता है ? क्या वह बुद्धि से निर्णय लेता है अथवा वह भावनाप्रधान है ?’ इत्यादि सूत्रों को ध्यान में लेना अति आवश्यक होता है ।
२. हस्तरेखा शास्त्र के द्वारा ही ‘व्यक्ति का अध्यात्म की ओर मुडने’ का बोध हो पाना
सामान्य रूप से दुख, जिज्ञासा, भक्ति अथवा जीवन को नया मोड देनेवाले प्रसंग इत्यादि अनेक कारणों से लोग अध्यात्म की ओर मुडते हैं । अध्यात्म की ओर मुडने के लिए उस समय की व्यक्ति की इच्छा, क्षमता एवं लालसा, ये घटक बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं तथा उसके अनुसार भगवान उस व्यक्ति के जीवन में उस प्रकार के प्रसंग उत्पन्न कर देते हैं । ‘अध्यात्म की ओर मुडना’ व्यक्ति के जीवन में आनेवाला बडा परिवर्तन है तथा हस्तरेखा शास्त्र के द्वारा इसका बोध हो सकता है ।
३. हस्तरेखा शास्त्र शोध के द्वारा ‘क्या बालक का जन्म उच्च लोकों से हुआ है ?’, इसकी पहचान करना संभव !
दैवी बालक (टिप्पणी) इस विश्व के लिए एक आशा की किरण हैं तथा यहां उन्हें अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य करना है । जब ये बालक कार्य करेंगे, उस समय का काल पृथ्वी का ‘सत्ययुग’ होगा । इससे पूर्व मैंने कुछ बालकों के हाथ देखे हैं; उससे समझ में आता है कि ‘वो बालक दैवी हैं तथा उनके जन्म के पीछे विशिष्ट उद्देश्य हैं ।’ इस विषय पर और अधिक शोध करने से हाथ की रेखाओं से ‘क्या संबंधित बालक का जन्म उच्च लोकों से पृथ्वी पर हुआ है ?’, यह समझ में आ सकेगा; ऐसा मुझे लगता है ।
टिप्पणी – दैवी बालकों का अर्थ है स्वर्ग, महर्, जन आदि उच्च लोकों से पृथ्वी पर जन्मे जीव ! सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने सूक्ष्म परीक्षण के द्वारा ऐसे १ सहस्र से अधिक दैवी बालकों की पहचान की है ।
३ अ. जन्म के तुरंत उपरांत शिशु का हाथ देखा जाए, तो ‘उसका जन्म किस लोक से हुआ है ?’, यह समझ में आना संभव : मैंने नवजात शिशु का भी हाथ देखा है । उसके हाथे पर पिछले जन्म के जीवन का आलेख दर्शाती रेखाएं थी । उसके हाथ की रेखाएं उसका साधनामार्ग दर्शा रही थीं । २ से ३ माह के उपरांत ये रेखाएं धीरे-धीरे नष्ट होती गईं तथा इस जन्म के संस्कारों के अनुसार नई रेखाएं बनती गईं । जन्म के तुरंत उपरांत शिशु का हाथ देखा जाए, तो ‘उसका जन्म किस लोक से हुआ है तथा उसके इस जन्म का उद्देश्य क्या है ?, यह समझ में आ पाएगा, ऐसा मुझे लगता है ।
४. हस्तरेखाओं से यह समझना सरल हो जाता है कि ‘क्या व्यक्ति को पूर्वजों का अथवा अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है ?’
इसके लिए हाथ की अच्छी एवं दोषयुक्त रेखाएं, हथेली का रंग, उस पर विभिन्न रंगों में स्थित भाग, उंगलियों का आकार, अंगूठे का आकार, हाथ पर बिंदुदाब (एक्यूप्रेशर) करते समय शरीर में होनेवाली पीडा आदि सभी घटकों को ध्यान में लेना पडता है । उसके कारण शरीर के किस भाग में कष्ट अधिक है, इसकी खोज की जा सकती है । अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से ग्रसित व्यक्तियों के हाथों पर विभिन्न रंगों के दाग होते हैं तथा ‘अनिष्ट शक्तियों का कष्ट अल्प होने पर ये दाग चले जाते हैं’, ऐसा मेरे देखने में आया है ।
४ अ. अनुवांशिक बीमारियां एक पीढी से दूसरी पीढी में स्तानांतरित हो सकती हैं; क्योंकि अतृप्त पूर्वज अपने वंशजों के गुणसूत्रों (टिप्पणी) में अपना स्थान बना लेते हैं : शरीर के दुर्बल भाग पर अथवा मन में अनुचित विचार आने पर व्यक्ति के मन पर अनिष्ट शक्तियां आक्रमण करती हैं । पूर्वज सामान्यरूप से अपने वंशजों के गुणसूत्रों में स्थान बनाते हैं तथा उनके माध्यम से अपनी इच्छाएं पूर्ण कर लेते हैं । स्वयं को सद्गति मिलने हेतु पूर्वज अपने वंश के साधनारत व्यक्ति से उसके अच्छे कर्म प्राप्त करने का प्रयास करते हैं । पूर्वजों के लिए अपने वंशजों के गुणसूत्रों में स्थान बनाना सरल होता है । इस प्रकार से अनुवांशिक बीमारियां एक पीढी से अगली पीढी में स्थानांतरित होती हैं ।
टिप्पणी – सजीवों के कोशिकाकेंद्र में स्थित अनुवांशिक गुणों को ले जानेवाला घटक है ‘गुणसूत्र’ !
४ आ. साधना के कारण वंश के व्यक्ति के गुणसूत्रों में सुधार आने से अनुवांशिक दोषों का अगली पीढी में स्थानांतरित न हो पाना : कोई व्यक्ति जब तक साधना, शांतिपाठ अथवा श्राद्धादि कर्म नहीं करता, तब तक पूर्वज उसके शरीर में अटके रहते हैं । उसके कारण ही किसी ने कहा है, ‘जब परिवार का कोई व्यक्ति साधना करने लगता है अथवा संतपद प्राप्त कर लेता है, उस समय उसके वंश की ७ पीढियों को उसका लाभ होता है ।’ साधना के कारण वंश के व्यक्ति के गुणसूत्रों में सुधार आता है तथा उसके कारण अनुवांशिक दोष अगली पीढी में स्थानांतरित नहीं होते ।
४ इ. समाज के अधिकाधिक लोगों ने साधना की, तो उनका आध्यात्मिक कष्ट दूर होकर पृथ्वी पर सत्ययुग का आना संभव : इस प्रकार से समाज के अधिकाधिक लोगों ने साधना की, तो उनके पूर्वज मुक्त हो जाएंगे तथा उनकी आनेवाली पीढियों में अनुवांशिक दोष उत्पन्न नहीं होंगे, साथ ही लोग अनिष्ट शक्तियों से मुक्त होंगे उससे पृथ्वी पर वास्तव में सत्ययुग का अवतरण होगा ।
५. साधना करनेवाले व्यक्ति के हाथोेंं की रेखाएं सामान्य (साधना न करनेवाले) व्यक्ति की तुलना में गति से परिवर्तित होती हैं !
सामान्यरूप से हाथ की रेखाओं में आनेवाले परिवर्तन व्यक्ति की विचार प्रक्रिया, विचारों की अवधि तथा उनमें समाहित निरंतरता के कारण आते हैं । यह परिवर्तन आने में न्यूनतम ६ माह से लेकर २ वर्ष की अवधि लगती है । साधना करनेवाले व्यक्ति के अंतर्मन पर स्थित संस्कार नष्ट होते हैं । उसके कारण उसके हाथ की रेखाएं सामान्य (साधना न करनेवाले ) व्यक्ति की तुलना में गति से परिवर्तित होती हैं ।
५ अ. जीवन का अंत निकट आने पर हाथ की रेखाओंं में बहुत परिवर्तन आना अथवा उनका नष्ट हो जाना : व्यक्ति के जीवन का अंत निकट आने पर उसके हाथ की रेखाओं में बहुत परिवर्तन आते हैं अथवा वो नष्ट हो जाती हैं । व्यक्ति के लेन-देन का हिसाब समाप्ति की ओर बढने से तथा साधना के कारण अंतर्मन के संस्कार नष्ट होने से ऐसा होता है ।’
– हस्तरेखा विशेषज्ञ सुनीता शुक्ला, ऋषिकेश, उत्तराखंड. (१७.४.२०२४)