सनातन का लघुग्रंथ : आध्यात्मिक कष्टों को दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का काल निकट आने के कारण अब अनिष्ट शक्तियों का प्रकोप बढ गया है । वर्तमान समय में लगभग सभी को अल्पाधिक स्तर पर अनिष्ट शक्तियों के कष्ट हैं ही ! कुछ लोगों की बीमारियां बहुत उपचारों से भी ठीक नहीं होतीं । कुछ लोग गृहस्थी की समस्याओं से बुरी तरह त्रस्त होते हैं । कुछ लोगों में बार-बार बिना किसी कारण नकारात्मकता अथवा निराशा आती है तथा अत्यधिक निराशा के कारण ‘अब जीवन का अंत करने’ जैसे नकारात्मक विचार भी आते हैं । अनेक साधक आध्यात्मिक कष्ट दूर होने हेतु नामजपादि ‘आध्यात्मिक उपचार’ करते हैं; परंतु अनिष्ट शक्तियां ‘साधकों के आध्यात्मिक उपचार प्रभावकारी न हों’, इसके लिए भी प्रयास करती हैं । उसके कारण साधकों के कष्ट शीघ्र अल्प न होने से धीरे-धीरे उपचारों में भी उनकी रुचि नहीं रह जाती । ‘आध्यात्मिक कष्ट होना’ भले ही हमारे हाथ में न हो, तब भी ‘आध्यात्मिक उपचारों से कष्टों को नियंत्रण में रखना तथा धीरे-धीरे उन्हें मिटाना’ हमारे हाथ में होता है । इसके लिए कष्टों की ओर देखने की स्वयं की दृष्टि परिवर्तित करनी पडती है । ‘आध्यात्मिक उपचारों से हम कष्टों पर निश्चित ही विजय प्राप्त कर सकते हैं’, स्वयं में यह विश्वास उत्पन्न करना पडता है । प्रस्तुत लेखमाला में दिए गए अधिकतर दृष्टिकोण सभी के लिए उपयुक्त हैं । ‘उनके अध्ययन से जो इन कष्टों से पीडित हैं, उन्हें कष्टों पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा मिले तथा उनसे अच्छी साधना होकर उनका जीवन आनंदमय बने’, यह श्री गुरुचरणों में प्रार्थना है !’ – संकलनकर्ता
१. ‘आध्यात्मिक कष्ट’ क्या होते हैं ?
अध्यात्म के अनुसार व्यक्ति की प्रकृति सत्त्व, रज एवं तम, इन त्रिगुणों से बनी होती है । सत्त्वगुण मन को स्थिरता प्रदान करनेवाला, आनंददायक तथा व्यक्ति की यात्रा ईश्वरतत्त्व की ओर होने में पूरक होता है । रज एवं तम, ये गुण सत्त्वगुण के विपरीत होते हैं । व्यक्ति में जब रज एवं तम गुणों की प्रबलता होती है, तब उसका अनिष्ट परिणाम उस व्यक्ति पर होता है । इसी को ‘व्यक्ति का आध्यात्मिक कष्ट’ कहा जाता है । प्रमुखता से भुवर्लाेक एवं सप्तपाताल में वास करनेवाली अनिष्ट शक्तियां (कष्टदायी सूक्ष्म देह अर्थात लिंगदेह), भुवर्लाेक में रहनेवाले पूर्वजों की अतृप्त लिंगदेह तथा ग्रहों के अशुभ योगों के कारण व्यक्ति को आध्यात्मिक कष्ट होता है ।
वर्तमान कलियुग में मनुष्य के जीवन की शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक तथा आर्थिक जैसी ८० प्रतिशत समस्याओं की जड में कुछ न कुछ आध्यात्मिक कारण (उदा. अनिष्ट शक्तियों का कष्ट, अतृप्त पूर्वजों का कष्ट, प्रारब्ध) होते ही हैं । वर्तमान समय में तो अनिष्ट शक्तियों का ही प्रकोप है । उसके कारण लगभग सभी को अल्पाधिक मात्रा में अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है ही अथवा वर्तमान समय में नहीं भी हो, तो भविष्य में हो सकता है ।
२. वर्तमान समय में सनातन के साधकों को बडे स्तर पर अनिष्ट शक्तियों के कष्ट होने का कारण
वर्तमान कलियुग में अधर्मी अनिष्ट शक्तियां भूतल पर ‘आसुरी राज्य’ की स्थापना हेतु प्रयासरत हैं, जबकि सनातन के साधक समष्टि साधना के द्वारा अर्थात समाज में अधिक से अधिक धर्म का प्रसार कर सभी के लिए कल्याणकारी ‘हिन्दू राष्ट्र (कलियुगांतर्गत सत्ययुग अर्थात ईश्वरीय राज्य)’ की स्थापना हेतु प्रयासरत हैं । साधक उनके इस ध्येय से परावृत्त हों; इसके लिए अनिष्ट शक्तियां साधकों को शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक जैसे विभिन्न स्तरों पर कष्ट पहुंचा रही हैं, साथ ही धर्मप्रसार की सेवा में बाधाएं भी उत्पन्न कर रही हैं । इस दृष्टि से साधकों के लिए तो यह सूक्ष्म से आपातकाल ही है । सूक्ष्म से अनिष्ट शक्तियों को पराजित किए बिना स्थूल से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती । इसके लिए साधक गुरुकृपा के बल पर, संतों एवं देवताओं के आशीर्वाद तथा नामजप आदि साधना के द्वारा सूक्ष्म से अनिष्ट शक्तियों से लड रहे हैं ।
३. आध्यात्मिक कष्टों के कुछ लक्षण
आध्यात्मिक कष्ट भले ही सूक्ष्म से होते हैं; परंतु ‘यह आध्यात्मिक कष्ट है अथवा नहीं’, इसे पहचानने के कुछ लक्षण भी होते हैं । ऐसे कुछ लक्षण आगे दिए हैं –
३ अ. शारीरिक लक्षण : बिना किसी कारण ‘थकान प्रतीत होना, सिर भारी होना, चक्कर आना, भूख न लगना’, साथ ही अनेक वर्षाें से उचित औषधीय चिकित्सा तथा पथ्य लेने पर भी शारीरिक व्याधि का ठीक न होना इत्यादि ।
३ आ. मानसिक लक्षण : बिना किसी कारण ‘चिडचिडाहट होना, नकारात्मकता, निराशा आना, हतोत्साहित होना, साथ ही साधना के मार्गदर्शक, देवता अथवा साधना के प्रति शंका उत्पन्न होना’ आदि ।
३ इ. बौद्धिक लक्षण : बिना किसी कारण असमंजस में पडना, बात कर रहे सामनेवाले व्यक्ति की बातें समझ में न आना इत्यादि ।
३ ई. पारिवारिक लक्षण : छोटे-छोटे प्रसंगों में भी परिजनों में निरंतर मतभेद अथवा अनुचित धारणाएं उत्पन्न होकर एक-दूसरे में दूरियां, संशय अथवा शत्रुता उत्पन्न होना; परिवार के कुछ सदस्यों का व्यसनाधीन होना; सदैव परिवार के किसी न किसी सदस्य का बीमार होना इत्यादि ।
३ उ. अन्य लक्षण : बार-बार बुरे स्वप्न आना, किसी स्तोत्र का पाठ करते समय बिना किसी कारण जम्हाई आना, नामजप न होना, अकस्मात ही साधना छोडने का मन करना इत्यादि ।
उक्त में से एक अथवा अनेक कष्ट होते हों, तो ‘हमें अनिष्ट शक्तियों के कष्ट हो रहे हैं’, यह समझ लें । ‘हमें अनिष्ट शक्तियों के कारण तो कोई कष्ट नहीं हो रहा है ?’, यह समझ में न आता हो, तो अच्छी साधना करनेवाले तथा सूक्ष्म से जानने की क्षमता रखनेवाले साधकों अथवा संतों से इस विषय में पूछा जा सकता है ।
४. आध्यात्मिक कष्टों पर विजय प्राप्त करना क्यों आवश्यक ?
आध्यात्मिक कष्टों के कारण व्यक्ति से आध्यात्मिक उन्नति हेतु आवश्यक नामजप तथा अन्य साधना भी अच्छे ढंग से नहीं होती । व्यक्ति द्वारा की जा रही साधना की अधिकांश शक्ति कष्टों से लडने में ही खर्च हो जाती है । साधना खर्च होने के कारण ऐसे व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र नहीं होती । इसके विपरीत, आध्यात्मिक कष्ट दूर होने पर व्यक्ति का जीवन आनंदमय होता है, साथ ही उसकी साधना भी अच्छी होती है । इसलिए सभी को प्रधानता से आध्यात्मिक कष्ट दूर करने हेतु नामजपादि आध्यात्मिक उपचार करना अति आवश्यक होता है ।
५. आध्यात्मिक कष्टों पर विजय प्राप्त करने का प्रभावी अस्त्र : आध्यात्मिक उपचार !
आध्यात्मिक कष्ट दूर करने हेतु किए जानेवाले उपचारों को ‘आध्यात्मिक उपचार’ कहते हैं । नामजप करना, मंत्र का पाठ करना, खाली बक्सों के उपचार करना इत्यादि आध्यात्मिक उपचारों के विभिन्न प्रकार हैं ।
६. आध्यात्मिक उपचारों पर विजय प्राप्त करने हेतु उपयुक्त सिद्ध होनेवाले दृष्टिकोण
६ अ. कष्टों के कारण निराश अथवा दुखी न होकर उनके कारणों को समझना : ‘वर्तमान समय में सूक्ष्म से आपातकाल होने से सभी साधकों को अल्पाधिक मात्रा में उसका दंश झेलना पड रहा है । जिन साधकों को उसका सर्वाधिक दंश झेलना पडता है अर्थात उन्हें अधिक कष्ट होता है, इनमें से ९० प्रतिशत साधकों को लगता है, ‘मेरी साधना ठीक से नहीं होती; इसलिए मुझे कष्ट हो रहे हैं ।’ ऐसे साधक ‘मुझे साधना संभव नहीं होती’, ‘मेरी सेवा अच्छी नहीं होती’ जैसे विचारों में फंसकर दुखी एवं निराश हो जाते हैं । ऐसे साधक इन कष्टों के निम्न कारणों को ध्यान में लें –
६ अ १. कालगति (काल की महिमा) : सनातन संस्था के श्रद्धास्रोत प.पू. भक्तराज महाराजजी ने (प.पू. बाबा ने) अपने एक भजन में कहा है ‘काळगतीपुढे बुद्धी काय करी ।’ अर्थात ‘कालगति के सामने बुद्धि क्या कर सकती है ?’ युधिष्ठिर इतने बडे धुरंधर, बुद्धिमान एवं धर्मात्मा होते हुए भी कौरवों के साथ खेले गए चौरस में हार जाने पर उन्हें अपनी पत्नी को ‘दांव’ पर लगाने की जो बुद्धि हुई, वह कालगति के कारण ही ! साधकों ने भी इस कालगति की महिमा ध्यान में ली, तो ‘उसके आगे हम कुछ नहीं कर सकते । उसके कारण हमें आध्यात्मिक कष्ट भोगने ही हैं’, यह सत्य ध्यान में आने पर उन्हें होनेवाले दुख एवं निराशा अल्प होगी । युधिष्ठिर तथा अन्य पांडवों में श्रीकृष्ण के प्रति दृढ श्रद्धा थी; इसलिए वे पार लग गए । उसी प्रकार कष्ट से ग्रस्त साधकों ने सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के प्रति दृढ श्रद्धा रखी, तो वे भी निश्चित से इन कष्टों से पार हो जाएंगे !’
६ अ २. प्रारब्ध : कुछ साधकों को पूर्व तथा इस जन्म के पापकर्माें के फल कष्टों के रूप में भोगने पडते हैं । संत एकनाथ महाराजजी अपने एक वचन में कहते हैं – ‘परिस्थिति के अनुसार जीवन व्यतीत करना सीखो । क्योंकि हमारी वर्तमान स्थिति हमारे ही पूर्व कर्माें का फल (संचित) होता है ।’ इस वचन के अनुसार अपने संचित को हमें स्वीकार करना ही पडेगा अर्थात हमें अपना प्रारब्ध भोगना ही पडेगा ! उसे हम जितना संतोष से भोगेंगे, हमारे कष्ट उतने ही सहनीय होंगे । इसके लिए साधक भगवान से यह प्रार्थना करें, ‘हे भगवान, मैं पूर्व के पापकर्माें के फल के रूप में कष्ट भुगत रहा हूं; परंतु हे भगवान, अब इसके आगे आप मुझसे एक भी पापकर्म न होने दें ।’
(क्रमशः)
– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२०.३.२०१५)
(पढिए : सनातन का लघुग्रंथ ‘आध्यात्मिक कष्टोंको दूर करने हेतु उपयुक्त दृष्टिकोण’)
सनातन के ग्रंथ एवं उत्पाद ऑनलाइन खरीदने हेतु : SanatanShop.com