तर्पण एवं पितृतर्पण का उद्देश्य और महत्त्व !
१८ सितंबर से २ अक्टूबर पितृपक्ष के निमित्त…
किसी भी श्राद्धविधि में ‘तर्पण’ दिया जाता है । ‘तर्पण’ का अर्थ, उसका महत्त्व एवं प्रकार, उसका उद्देश्य, साथ ही उसे करने की पद्धति के विषय में जानकारी इस लेख में दिया है ।
१. तर्पण
अ. व्युत्पत्ति एवं अर्थ
‘तृप्’ अर्थात संतुष्ट करना । ‘तृप्’ धातु से ‘तर्पण’ शब्द बना है । देव, ऋषि, पितर एवं मनुष्य को जलांजलि (उदक) देकर तृप्त करना अर्थात तर्पण ।
आ. उद्देश्य
तर्पण का उद्देश्य है, जिनके नामों का उल्लेख कर तर्पण किया जाता है, वे देव, पितर इत्यादि हमारा कल्याण करें ।
इ. प्रकार
ब्रह्मयज्ञांग (यज्ञ के समय किया जानेवाला), स्नानांग (नित्य स्नान के उपरांत किया जानेवाला), श्राद्धांग (श्राद्ध में किया जानेवाला), ऐसी अनेक विधियों के अंगभूत तर्पण होता है और उसे उस विशिष्ट प्रसंग में करना होता है ।
ई. तर्पण की पद्धति
१. बोधायन ने कहा है, ‘तर्पण नदी पर करें ।’ यह तर्पण नदी में नाभि तक पानी में खडे रहकर अथवा नदी के किनारे बैठकर करें ।
२. देव एवं ऋषि को पूर्वाभिमुख एवं पितरों को दक्षिणाभिमुख होकर तर्पण करना होता है ।
३. धर्मशास्त्र बताता है, ‘देवताओं कोे तर्पण सव्य से, ऋषि इत्यादि को निवीत से एवं पितरों को अपसव्य से करें ।’
४. तर्पण के लिए दर्भ की (कुश की) आवश्यकता होती है । दर्भ के अग्र से देवताओं का, दर्भ को बीच से मोडकर ऋषियों का एवं दो दर्भ के मूल एवं अग्र भाग से पितरों का तर्पण करें ।
५. हाथ की उंगलियों के अग्रभाग में विद्यमान देवतीर्थ से देवताओं को, अनामिका एवं कनिष्ठा के मूल से ऋषियों को और तर्जनी एवं अंगूठे के मध्यभाग से पितरों को उदक दें (तर्पण करें) ।
२. पितृतर्पण
अ. व्याख्या
पितरों को उद्देशित कर दिया गया उदक अर्थात पितृतर्पण ।
आ. क्यों करें ?
जिस प्रकार पितरों को वंशजों से पिंड एवं ब्राह्मण भोजन की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार उदक की भी होती है ।
इ. महत्त्व
तर्पण द्वारा पितर केवल संतुष्ट होकर निकल नहीं जाते, अपितु तर्पणकर्ता को जीवन, तेज, ब्रह्मवर्चस्व, संपत्ति, यश एवं अन्नाद्य (भक्षण किए अन्न को पचाने का सामर्थ्य) देकर तृप्त करते हैं ।
ई. कब करें ?
देव, ऋषि एवं पितरों को उद्देशित कर नित्य (प्रतिदिन) तर्पण करें । नित्य तर्पण प्रातः स्नानोपरांत करें । पितरोंके लिए प्रतिदिन श्राद्ध करना संभव न हो, तो न्यूनतम तर्पण अवश्य करें ।
उ. तिलतर्पण
पितृतर्पण में तिल लें । तिल के दो प्रकार हैं – काले एवं श्वेत । श्राद्ध में काले तिल का उपयोग करें ।
१. ‘तिल मिश्रित जल से पितरों को किए तर्पण को तिलतर्पण कहते हैं ।
२. जितने पितरों को उद्देशित कर श्राद्ध किया गया हो, उतने पितरों को ही उद्देशित कर श्राद्धांग तिलतर्पण करना आवश्यक है ।
३. नांदीश्राद्ध, सपिंडीश्राद्ध इत्यादि श्राद्धों में तिलतर्पण नहीं करते ।’
ऊ. तिलतर्पण का महत्त्व
१. ‘पितरों को तिल प्रिय है ।
२. तिल के प्रयोग से असुर श्राद्धविघात नहीं करते (श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते) ।
३. श्राद्ध के दिन घर में सर्वत्र तिल बिखेरें, आमंत्रित ब्राह्मणों को तिलमिश्रित जल दें एवं तिलका दान करें ।’
– जैमिनीयगृह्यसूत्र (उत्तरभाग, खण्ड १), बौधायनधर्मसूत्र (प्रश्न २, अध्याय ८, सूत्र ८) एवं बौधायनगृह्यसूत्र
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग १) – महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’)