रक्षाबंधन का आध्यात्मिक उद्देश्य !
‘रक्षाबंधन के दिन बहन भाई के हाथ में राखी का धागा बांधती है । सगे बहन-भाई हों अथवा चित्त में जिसके प्रति भाई अथवा बहन का भाव हो, तो वे यह पर्व मनाते हैं । चित्त में यदि शुद्ध एवं अच्छी भावनाएं न हों, तो राखी केवल एक धागा बनकर रह जाती है । यदि अच्छी पवित्र, दृढ एवं सुंदर भावना हो, तो वही कोमल धागा बडा चमत्कार करता है । इससे स्पष्ट ऋषियों ने कितना गहरा अध्ययन किया होगा, यह दिखाई देता है । जीवन के मूल्यवान क्षणों को, ऊर्जा को तथा दृष्टि को निम्न स्तर पर ले जाने से बचाने में रक्षाबंधन का उत्सव बडी भूमिका निभाता है ।
१. निरपेक्ष भाव से भाई को राखी बांधनेवाली बहन है साक्षात श्री लक्ष्मीदेवी !
बहन को निरपेक्ष भाव से भाई के हाथ में राखी का धागा बांधते समय यह भाव रखना चाहिए, ‘मेरा भाई ओजस्वी, यशस्वी एवं तपस्वी बने । वह स्वयं भी भवसागर के पार जाए तथा अन्यों का भी तारणहार बने ।’ इस भावना से कोई बहन यदि राखी बांधती है, तो वह वास्तविकता में केवल बहन ही नहीं, अपितु साक्षात श्री लक्ष्मीदेवी है ।
२. रक्षाबंधन के धागे का महत्त्व
मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि किसी के प्रति आप जैसे विचार करते हैं, उसके मन में भी वैसे ही विचार उत्पन्न होते हैं । बहन यदि भाई के लिए शुभकामना करती है, तो उससे भाई के चित्त में भी प्रसन्नता, उदारता, सहानुभूति तथा सद्कामनाओं की प्रक्रिया होती है । दूसरा कुछ बांधते हैं, तो ऐसा हो सकता है कि उसके टुकडे हो जाएं; परंतु इस धागे के टुकडे नहीं होते । यह धागा दिखता तो पतला तथा कोमल है; परंतु उसमें बडी शक्ति छिपी होती है ।
३. रक्षाबंधन का दिन बहन-भाई को दायित्व का स्मरण दिलानेवाला दिवस !
जब तक बहन का बहनत्व है, जब तक वह ‘भाई का कल्याण हो; उसका ओज, बल, तेज एवं ज्ञान बढता रहे’, इस कामना से भाई को राखी बांधती है तथा भाई भी तब तक ही भाई है, जब तक वह मानता हो कि ‘बहन के जीव का, शील का, चरित्र का तथा बहन के दुःख में दौडकर जाने का दायित्व मेरा है ।’ इसी दायित्व का स्मरण करानेवाला दिवस है रक्षाबंधन !
४. आध्यात्मिक दृष्टि से एक-दूसरे की सहायता करनेवाले बहन-भाई गुरुतत्त्व की प्राप्ति के अधिकारी !
बहन को केवल बाह्यरक्षा हेतु ही भाई को राखी नहीं बांधनी चाहिए तथा भाई को भी केवल बहन की बाह्य सुविधाओं की ही चिंता नहीं करनी चाहिए, तथा बहन गार्गी जैसी बने तथा भाई जनक जैसा बने ! ‘बहन तत्त्वज्ञान प्राप्त करे, सुख-दुख में समान बनी रहे, लाभ-हानि एवं जीवन-मृत्यु को खेल समझकर जीवन-मृत्यु के पार जो परमात्मा है, वह उसमें जागृत हो’, यह ज्ञान प्राप्त करने में जो भाई बहन की सहायता करता हो, तो वास्तव में वह भाई भगवान का रूप है । यदि आपकी दृष्टि भाई को भगवान का रूप माननेवाली बन गई है तथा आप एक-दूसरे के लिए ऐसी दृष्टि की कामना करते हो, तो आप केवल भाई-बहन नहीं हैं, अपितु गुरुभाई-गुरुबहन भी हैं तथा आप गुरुतत्त्व की प्राप्ति के अधिकारी भी हैं ।’
(साभार : मासिक, ‘ऋषि प्रसाद’, जुलाई २०२०)