सत्य के निकट ले जानेवाला, अर्थात ही सत्-चित्-आनंद देनेवाला एकमात्र हिन्दू धर्म !
छात्रों के लिए आयोजित एक कार्यशाला में हिन्दुत्व से संबंधित विषयों पर चर्चा की जा रही थी । चायपान के समय मैंने कुछ छात्रों से पूछा, ‘‘हिन्दू धर्म क्या है ? क्या यह आप मुझे बता सकेंगे ?’’ इस प्रश्न पर सभी शांत रहे । कुछ समय पश्चात एक लडकी ने कहा, ‘‘हिन्दू अनेक देवताओं की पूजा करते हैं ।’’ उस पर मैंने उसे पूछा, ‘‘इन अनेक देवताओं को किसने उत्पन्न किया ?’’ अब इस पर सभी स्तब्ध थे । किसी ने कुछ नहीं बोला । फिर मैंने पूछा ‘‘क्या आपने कभी ‘ब्रह्म’ शब्द सुना है ? सृष्टि के सृजनकर्ता देवता ब्रह्माजी नहीं, अपितु अंतिम सत्य यह है कि ब्रह्म, जो सृष्टि में विद्यमान प्रकटीकरण का मूल सार है, तो क्योंकि आपको इस विषय में कुछ जानकारी है ?’’ उनमें से ‘किसी को भी ब्रह्म के विषय में जानकारी नहीं है’, यह ध्यान में आया । मैं विश्वास ही नहीं कर पा रही थी । ‘प्राचीन ऋषियों द्वारा आविष्कारित वेदों के रूप में स्थित उच्च तत्त्वज्ञान भावी भारतीय पीढियों तक क्यों नहीं पहुंचा ?’, यह प्रश्न मेरे मन में उठा ।
हिन्दू धर्म क्या है ?, इस विषय में विश्लेषण करनेवाला लेख
१. ‘हिन्दुओं का तत्त्वज्ञान अद्वैत अर्थात ईश्वर एवं मैं एक ही हैं’, इस अत्युच्च स्तर का !
जर्मन दार्शनिक एवं वैज्ञानिकों ने इस तत्त्वज्ञान की बडे स्तर पर प्रशंसा की है । केवल इतना ही नहीं, अपितु कुछ सौ वर्ष पूर्व यह तत्त्वज्ञान यूरोप पहुंचा । इस घटना के उपरांत जब मैं भारतीय युवक-युवतियों से मिलती थी तथा मुझे उनसे बात करने का अवसर मिलता था, तब मैं उनसे ‘क्या आप मुझे हिन्दू धर्म समझाकर बता सकेंगे ?’, यही प्रश्न पूछती थी; परंतु अभी तक मुझे किसी ने भी भारतीय ज्ञान की नींव क्या है ?, यह नहीं बताया है । ‘‘विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का विचार किया जाए, तो भारतीय परंपरा का स्थान सबसे ऊंचे स्तर पर हैं, यह भारतीयों को ज्ञात नहीं है ऐसा लगता है । इस स्तर का तत्त्वज्ञान जो विचारों एवं शब्दों से परे अर्थात अद्वैत के स्तर का अर्थात ईश्वर एवं मैं एक ही हैं । इस तत्त्वज्ञान के कारण भारतीय परंपरा उसके उपरांत आईं परंपराओं के उपरांत भी टिका हुआ है । ‘भारतीयों को उनकी ऋषि-मुनियों के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वज्ञान का विस्मरण होकर उसके उपरांत आईं परंपराओं ने भारतीय ऋषियों द्वारा बताया हुआ नहीं, अपितु नई परंपराओं की ओर सृष्टि की निर्मिति के विषय में उचित स्पष्टीकरण है’, ऐसा आभास उत्पन्न किया । निर्माता अनेक नहीं हो सकते । वह निर्माता एक ही सर्वाेच्च शक्ति होगा ।
२. हिन्दू धर्म ही केवल सत्य की ओर अग्रसर धर्म !
‘ईसाई एवं इस्लाम धर्म एक ही देवता की उपासना करने हैं, जबकि ‘हिन्दू अनेक देवताओं की पूजा करते हैं; इसलिए उनके पास चयन हेतु और अधिक अच्छे विकल्प हैं तथा वे सत्य के निकट जाते हैं’; परंतु अधिकतर हिन्दुओं में उनकी परंपराओं के विषय में अज्ञान होने से वे हिन्दू धर्म से दूर होते जा रहे हैं । वास्तव में देखा जाए, तो हिन्दू लोग यह सूत्र रख सकते हैं कि ‘हम अनेक देवताओं की पूजा करते हैं, इसमें अनुचित क्या है ? आप उसे हम पर छोडिए ।’ वास्तव में देखा जाए, तो अनेक देवताओं की पूजा करने में कुछ भी अनुचित नहीं है, अपितु वही उचित है । ‘विश्व में बडे स्तर पर विविधता होने से विश्व का कार्य चलानेवाले विभागों को विभिन्न देवता चला रहे हैं; परंतु ये सभी देवता इस एक ब्रह्म में समाए हुए हैं, यह हिन्दुओं को ज्ञात न होने से उन्हें लगता है कि ‘अन्य दो धर्म (मुसलमान एवं ईसाई) उचित बता रहे हैं ।’ वास्तव में स्रोत एक और एक ही होना चाहिए । यदि हिन्दुओं को अपनी परंपरा के विषय में ज्ञात हो, तो ईसाई अथवा इस्लाम की अपेक्षा हिन्दू धर्म अच्छा है; क्योंकि वह सत्य के निकट जाता है, इसे हिन्दू दिखा सकते हैं ।
३. हिन्दू धर्म श्रेष्ठ है, इसे किस प्रकार बताया जा सकेगा ?
ईसाई एवं मुसलमान पंथ बताते हैं कि सृष्टि का निर्माता सृष्टि से भिन्न है तथा उस धर्म में ‘मैं भगवान से एकरूप हूं’, ऐसा कोई भी नहीं कहता । (ईसाई धर्म में जीजस इसका अपवाद है । उसे भगवान की श्रेणी दी गई है ।) पुनः इन धर्माें के भगवान को रूचि-अरूचि है । ‘जो मुझे नहीं मानते, वे लोग मुझे अच्छे नहीं लगते’, ऐसा इस भगवान ने एक व्यक्ति को बताया तथा उसे पुस्तक में दिया गया है । ईसाई धर्म से संबंधित व्यक्ति ‘जीजस क्राइस्ट’ तथा उनके ग्रंथ का नाम ‘बाइबल’ है । इस्लाम धर्म के विषय में बताना हो, तो ‘प्रेषित मोहम्मद’ तथा उनके ग्रंथ का नाम ‘कुरआन’ है । इस धर्म में ‘जो उनके भगवान को नहीं मानते, वह भगवान को अच्छे नहीं लगते तथा भगवान के प्रति विश्वास न रखनेवालों को यह भगवान उन लोगों को नरक भेज देता है’, ऐसा बताया गया है । यह उचित नहीं लगता । अब इसकी तुलना हिन्दू धर्म में क्या बताया है, इससे की जा सकती है । हिन्दू धर्म में बताया है, ‘‘विश्व में उत्पन्न प्रत्येक वस्तु की निर्मिति के कारण ब्रह्म हैं, जो आनंददायक, अनंत एवं शुद्ध (विचार एवं भान से परे) हैं । ब्रह्म से शक्ति उत्पन्न होकर विश्व की विविधता उत्पन्न हुई । यह समुद्र की लहरों की भांति है । इन सभी लहरों का एकत्रित होना समुद्र है । जब लहर न्यून होती है, तब कुछ भी व्यर्थ नहीं होता; परंतु यह सत्य के निकट है, यह हमें कैसे समझ में आएगा ? भगवान कहीं आकाश में अलग है तथा यह विश्व उससे स्वतंत्र है, क्या यह संभव है ? अब विज्ञान भी ‘कुछ भी अलग नहीं, अपितु सबकुछ एक है तथा वह एक-दूसरे से जुडा हुआ है’, इस निष्कर्ष तक पहुंचा है ।’’
४. ‘हम कौन हैं ?’, यह समझकर उसकी पूर्ति करना ही मनुष्य का ध्येय है !
ऋषियों द्वारा दिया गया ज्ञान केवल जानकारी नहीं है, अपितु वह वास्तविकता है । उसका अनुभव किया जा सकता है तथा उसे करना चाहिए । स्वयं के प्रति का भान तथा आनंद प्रतीत होना, यह कहीं आकाश में नहीं, अपितु हमारे जीवन का सार है । ‘ऋषियों ने उसका अनुभव किया तथा हम कैसे उसे अनुभव कर सकते हैं ?’, इस विषय में हमें कल्पना दी । एक मुख्य कल्पना है स्वयं के विचारों को शांत करना । इसका कारण सरल है; क्योंकि विचारों से परे जाकर शुद्ध भान अर्थात ही सत्-चित्-आनंद है । जब हम विचारों को रोकते हैं, तब हम उनसे जुड जाते हैं । ‘हम कौन हैं ?’, इसे जान लेना तथा उसकी पूर्ति करना’, हमारे जीवन का ध्येय है । इस विशाल विश्व में हम कोई छोटे व्यक्ति नहीं ,अपितु सभी में विद्यमान आनंददायक संवेदना हैं । ‘मृत्यु होने तक रूककर उसके उपरांत स्वर्ग जाने की अपेक्षा करना’, हमारे जीवन का ध्येय नहीं है । हम अपने संपूर्ण जीवन में केवल पुस्तक में दी गई शाब्दिक जानकारी पर विश्वास करते हैं; परंतु वास्तविक सत्य पुस्तक अथवा ग्रंथ में न होकर वह हम में विद्यमान है ।
– मारिया वर्थ, जर्मन लेखिका एवं हिन्दू धर्म की अध्येता
(मारिया वर्थ के ब्लॉग से साभार)