चातुर्मास काल में साधना का महत्त्व

 १. चातुर्मास क्या होता है ?

‘आषाढ शुक्ल एकादशी ( देवशयनी एकादशी) से  लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी), इन चार माह को ‘चातुर्मास’ कहते हैं । इस वर्ष १७.७.२०२४ से १३.११.२०२४ की अवधि में चातुर्मास है । इस काल में श्रीविष्णु शेषशय्या पर योगनिद्रा लेते हैं । मनुष्य का एक वर्ष देवताओं की एक अहोरात्रि ! इसका अर्थ मनुष्य के एक वर्ष के प्रथम छः माह देवताओं का एक दिन तथा मनुष्य के शेष छः माह देवताओं की एक रात होती है; परंतु देवता चातुर्मास में केवल चार माह ही निद्रा लेते हैं । तथा एक तिहाई रात शेष रहते ही जाग जाते हैं ।

२. चातुर्मास के दो मुख्य उद्देश्य

परमार्थ हेतु पोषक तथा ईश्वर के गुणों को स्वयं में अंतर्भूत करने हेतु नामजप, सत्संग, सत्सेवा, त्याग, प्रीति इत्यादि सभी कृत्य करना, साथ ही गृहस्थी एवं साधना के लिए मारक तत्त्वों का अर्थात षड्‌रिपुओं का निषेध करना, चातुर्मास के ये दो मुख्य उद्देश्य हैं ।

श्रीमती प्राजक्ता जोशी

३. स्वास्थ्य की दृष्टि से चातुर्मास में व्रतस्थ रहने का महत्त्व

चातुर्मास में देवताओं के योगनिद्रा में होने से वातावरण में रज-तम बढता है । उसके कारण ‘स्वयं में सात्त्विकता बढाने हेतु चातुर्मास में व्रतस्थ रहना चाहिए’, ऐसा शास्त्र में कहा गया है । चातुर्मास में पाचन शक्ति धीमी पड जाने से इस काल में व्रतस्थ रहने से लाभ होता है । एकभुक्त रहना (एक ही बार भोजन करना), पूरा दिन उपवास रखना, सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, विशेष दिन विशेष आहार लेना; शरीर की दृष्टि से ये सभी कृत्य लाभकारी होने के कारण हिन्दू संस्कृति में चातुर्मास की अवधि में व्रतस्थ रहने का महत्त्व है ।

४. ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से चातुर्मास का महत्त्व

ईश्वरप्राप्ति हेतु मनुष्य जीवन का बहुत महत्त्व है । आषाढ शुक्ल एकादशी को सूर्य मिथुन राशि में होते हैं तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को सूर्य तुला राशि में होते हैं । चातुर्मास के काल में मिथुन, सिंह एवं कन्या राशियों में समाहित रवि शुभकारक होते हैं । तुला राशि के रवि को अशुभ माना जाता है । रवि ग्रह आत्मा के कारक हैं । आत्मोद्धार हेतु अर्थात आत्मा की शुद्धि हेतु यह काल पूरक है ।

५. चातुर्मास में तीर्थस्नान का महत्त्व

चातुर्मास में श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं । उसके कारण तीर्थस्थान का विशेष महत्त्व है । तीर्थस्नान करने से ईश्वरीय शक्ति एवं चैतन्य मिलता है । जिन्हें तीर्थस्नान करना संभव नहीं है, वे स्नान के जल में बेलपत्र डालकर न्यूनतम ११ बार ‘ॐ नम: शिवाय’ नामजप करते हुए स्नान करें ।

६. चातुर्मास में वातावरण में स्थित

अनिष्ट शक्तियों से होनेवाले कष्टों का स्तर घटाने हेतु साधना बढाना महत्त्वपूर्ण ! चातुर्मास में जीवसृष्टि के पालनकर्ता श्रीविष्णु शयन करते हैं; इसलिए वातावरण में स्थित अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट पहुंचाने का स्तर बढ जाता है । उसके कारण इस काल में साधना करते समय असंख्य शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कष्टों का सामना करना पडता है । इस वर्ष के चातुर्मास के आरंभ से लेकर अर्थात ४.७.२०१७ से अनेक साधकों को हो रहे कष्टों में वृद्धि हुई है । इसे टालने हेतु चातुर्मास में अनेक व्रत रखे जाते हैं । उसके कारण साधना में वृद्धि होकर उससे वातावरण में समाहित अनिष्ट शक्तियों से होनेवाले कष्टों का स्तर घट जाता है ।

– श्रीमती प्राजक्ता जोशी (ज्योतिष फलित विशारद), महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय ज्योतिष विभाग, सनातन आश्रम, गोवा.