पू. भगवंत कुमार मेनरायजी के पार्थिव शरीर से प्रचुर मात्रा में चैतन्य प्रक्षेपित होना तथा उनके अंतिम दर्शन करनेवाले साधकों को आध्यात्मिक लाभ होना
संतों के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने का महत्त्व रेखांकित करनेवाला महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय का शोधकार्य !
‘४.६.२०२४ को सायंकाल में सनातन के संत पू. भगवंत कुमार मेनरायजी ने चिकित्सालय में देहत्याग किया । दूसरे दिन सवेरे सनातन के आश्रम में सनातन के साधकों-साधिकाओं ने तथा संतों ने पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किए । इस समय अनेक लोगों को विशेषतापूर्ण अनुभूतियां हुईं ।
‘संतों के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक दृष्टि से क्या लाभ होता है ?’, इसके संदर्भ में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की ओर से ‘यू.ए.एस. (यूनिवर्सल ऑरा स्कैनर)’ उपकरण तथा लोलक के द्वारा शोध किया गया । ‘यू.ए.एस.’ उपकरण तथा लोलक का उपयोग कर वस्तु, वास्तु तथा व्यक्ति में विद्यमान नकारात्मक एवं सकारात्मक ऊर्जा की गणना की जा सकती है । इस शोध का विवरण आगे दिया गया है ।
१. पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने पर साधक-साधिकाओं पर हुए सकारात्मक परिणाम
इस परीक्षण में आध्यात्मिक कष्ट से ग्रस्त तथा कष्टरहित साधिका-साधिकाओं के द्वारा पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने के उपरांत उनके छायाचित्र खींचे गए । ‘यू.ए.एस.’ उपकरण के द्वारा इन सभी छायाचित्रों की गणना की गई । उनकी प्रविष्टियां आगे दी हैं ।
इस परीक्षण में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने से पहले तथा करने के उपरांत उनके तथा पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के छायाचित्र खींचे गए । ‘यू.ए.एस.’ उपकरण एवं लोलक से इन सभी छायाचित्रों की गणना की गईं, जिन्हें आगे दिया है ।
टिप्पणी – संत के छायाचित्रों में विद्यमान सकारात्मक ऊर्जा का प्रभामंडल २३०० मीटर से अधिक है; परंतु उसकी अचूक गणना करने हेतु परीक्षणस्थल की भूमि पर्याप्त नहीं थी; इसलिए उसकी अचूक गणना हेतु लटकन का उपयोग किया गया ।
टिप्पणी – प्रविष्टियों में साधक एवं साधिकाओं पर अल्पाधिक मात्रा में कष्टदायक स्पंदन देखे गए । इसका कारण है कि वर्तमान काल अत्यंत रज-तमप्रधान होने से व्यक्ति के मन, बुद्धि एवं शरीर पर रज-तमात्मक (कष्टदायक) स्पंदनों का आवरण आता है । इन कष्टदायक स्पंदनों से रक्षा होने के लिए प्रत्येक को प्रतिदिन स्वयं पर आया आवरण बीच-बीच में निकालना चाहिए । आवरण निकालने हेतु विविध पद्धतियों का उपयोग कर सकते हैं, उदा. विभूति लगाना, स्वयं पर गोमूत्र छिडकना, स्तोत्र पाठ करना अथवा सुनना, नामजप करना इत्यादि ।
उक्त प्रविष्टियों से यह ध्यान में आता है कि साधक-साधिकाओं के द्वारा पू. मेनरायजी के पार्थिव का अंतिमदर्शन करने पर उन सभी में विद्यमान नकारात्मक ऊर्जा अल्प होकर उनमें सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न हुई अथवा उसमें बहुत वृद्धि हुई । इसका कारण यह है कि साधक-साधिकाओं के द्वारा पू. मेनरायजी का दर्शन करते समय उनकी ओर से प्रक्षेपित होनेवाले चैतन्य का उनके द्वारा स्वयं के भाव के अनुसार ग्रहण किया गया ।
२. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने से उनका स्वयं पर एवं संत के पार्थिव शरीर पर हुआ सकारात्मक परिणाम
इस परीक्षण में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने से पहले तथा करने के उपरांत उनके तथा पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के छायाचित्र खींचे गए । ‘यू.ए.एस.’ उपकरण एवं लोलक से इन सभी छायाचित्रों की गणना की गईं, जिन्हें आगे दिया है ।
टिप्पणी – संत के छायाचित्रों में विद्यमान सकारात्मक ऊर्जा का प्रभामंडल २३०० मीटर से अधिक है; परंतु उसकी अचूक गणना करने हेतु परीक्षणस्थल की भूमि पर्याप्त नहीं थी; इसलिए उसकी अचूक गणना हेतु लटकन का उपयोग किया गया ।
३. निष्कर्ष
उक्त सभी प्रविष्टियों से स्पष्ट हुआ कि पू. मेनरायजी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने पर सभी में विद्यमान नकारात्मक ऊर्जा अल्प अथवा नष्ट हुई तथा उनमें विद्यमान सकारात्मक ऊर्जा में बहुत वृद्धि हुई । ‘संत के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करना’, इस कृति के लिए १ – २ मिनट ही लगते हैं; परंतु उससे होनेवाला आध्यात्मिक लाभ बहुत अधिक है । इससे संतों के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने का महत्त्व ध्यान में आता है ।’
– श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (६.६.२०२४)
ई-मेल : mav.research2014@gmail.com
इस अंक में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक सूक्ष्म : व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रिय हैैं । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है । |