‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी का ब्रह्मोत्सव’, अर्थात मन को परमानंद की अनुभूति प्रदान करनेवाला क्षण ! – पू. डॉ. शिबनारायण सेनजी, संपादक, साप्ताहिक ‘ट्रुथ’
‘श्रीहरि शरणम् ।
१. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के ब्रह्मोत्सव समारोह का सीधा प्रक्षेपण देखना’, मेरे लिए यह एक आनंददायी एवं उच्च स्तर का आध्यात्मिक अनुभव था ।
शास्त्र कहता है,
तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ।।
– श्रीमद्भागवत, स्कंध १२, अध्याय १२, श्लोक ५०
अर्थ : जिन वचनों से भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही रमणीय, मनभावन एवं नूतन मानना चाहिए । वही सदा मन को परमानंद की अनुभूति प्रदान करता रहता है और वही मानव का सभी दुःखसागर शुष्क कर देता है ।
दैवी अवतारों की लीलाओं का वर्णन करनेवाले काव्य एवं प्रसंग अत्यंत मधुर, तेजस्वी, मन को आनंद प्रदान करनेवाले एवं उत्साहवर्धक होते हैं । ये नित्य नूतन लगनेवाले काव्य मन को चिरंतन आनंद तो देते ही हैं, साथ ही दुःखरूपी महासागर का वाष्पीकरण भी करते हैं ।
२. ब्रह्मोत्सव के दिन से मैंने स्वयं में विद्यमान बुरी आदतों का त्याग करने का संकल्प किया है ।
३. ‘इस समारोह में गुरुदेवजी का उनके सहस्रों साधक भक्तों के साथ दर्शन करना’, यह मेरे लिए आनंददायी एवं उत्साहवर्धक अनुभव था । ‘इन साधक भक्तों के पांव की धुल भी अत्यंत पवित्र है’, ऐसा मुझे लग रहा है । नामस्मरण एवं स्तोत्रगायन करते हुए चल रही दैवी फेरी के दृश्य से मेरे मन पर एक अनोखा ही संस्कार अंकित हुआ है ।
४. इस समय गुरुदेवजी द्वारा आरंभ किए गए अनगिनत उपक्रमों का वर्तमान ब्योरा लिया गया । हमारे ‘शास्त्र धर्म प्रचार सभा’ के संस्थापक आदरणीय सत्यपुरुष श्रीमत् उपेंद्रमोहन सेनगुप्ताजी ने स्वयं के जीवनकाल में समाजसुधार के अविरत प्रयास किए । ‘प.पू. डॉ. आठवलेजी कर रहे ये दैवी प्रयास देखकर श्रीमत् उपेंद्रमोहनजी की आत्मा बहुत आनंदित हुई होगी’, ऐसा मुझे लग रहा है ।
५. ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी, श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी एवं श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी की उपस्थिति में संपन्न हुआ चंडीयाग देखने के लिए मिलना’, यह भी एक दुर्लभ अवसर था ।
६. चंडीयाग आरंभ होने से पूर्व परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के दैवी बालकों से पूर्व में हुई भेंट की (सत्संग की) दृश्य-श्रव्य चक्रिका (सीडी) दिखाई गई । उसे देखकर मुझे समझ में आया कि ‘इन बालकों का आचरण अत्यंत नम्र एवं विचार पवित्र हैं ।’
७. कुछ वर्षों पूर्व सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा था, ‘धर्मराज्य की (हिन्दू राष्ट्र की) स्थापना करने हेतु उच्च लोकों से दैवी जीवों का जन्म होगा ।’ उसके अनुसार हमारे संप्रदाय के संस्थापक श्रीमत् श्री उपेंद्रमोहनजी के दैवी निवास रहे कोलकाता शहर में ऐसे दैवी बालकों का जन्म हो रहा है ।
८. ‘संतों का कहा कभी भी असत्य प्रमाणित नहीं होता’, यह सिद्ध करनेवाला एक प्रसंग विशद करता हूं । एक वर्ष पूर्व मैं प.पू. डॉ. आठवलेजी से मिला था । उस समय मेरे मन की शंका का समाधान करते हुए उन्होंने कहा, ‘भविष्य में होनेवाले एकाध युद्ध में कोई देश भूल से अपने ही देश पर बम विस्फोट करेगा ।’ दैवी शब्द कभी भी असत्य नहीं होते’, इसकी मुझे प्रतीति हुई । रूस-यूक्रेन के मध्य हो रहे युद्ध में रूस की सेना ने भूल से अपनी ही भूमि पर बम गिराए एवं उनके विस्फोटों के कारण उनके देश को बहुत ही क्षति पहुंची । इससे ध्यान में आता है, ‘एक ब्रह्मविद का (अर्थात जिसे ब्रह्म ज्ञात हो, उसका) सहजता से बोलना भी कभी अनुचित एवं असत्य नहीं होता ।’
अत्यंत अद्वितीय ऐसा ब्रह्मोत्सव देखकर हम सभी लोग प्रार्थना करते हैं कि ‘श्रीहरि की दैवी इच्छा के अनुसार अखिल मानवजाति का कल्याण करनेवाले धर्मराज्य की (हिन्दू राष्ट्र की) स्थापना होने हेतु आवश्यक मार्गदर्शन करनेवाले लीलाधारी प.पू. डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी को स्वास्थ्यपूर्ण दीर्घायु मिले ।’
जयन्ति शास्त्राणि द्रवन्ति दाम्भिकाः ।
हृष्यन्ति सन्तो निपतन्ति नास्तिकाः ।।
अर्थ : जब शास्त्रों की विजय होती है एवं पाखंडी भाग जाते हैं, तब सज्जनों को आनंद मिलता है एवं नास्तिकों की पराजय होती है ।
समाज में विद्यमान लोगों की नास्तिकता, कृतघ्नता एवं स्वैराचारी वृत्ति महापुरुष को दिखाई देती है । इस कारण श्रीहरि के हृदय में उत्पन्न हुआ दुःख श्रीहरि स्वयं के अंतर्मन में छुपा लेते हैं । ‘परात्पर गुरुदेवजी की दैवी प्रीति के कारण हमारे विचार एवं भावना शुद्ध होने दीजिए एवं उन्हीं की कृपा से प्राप्त सेवा हम दास्यभाव में रहकर आनंद से तथा अनंत काल तक कर सकें’, ऐसी उनके चरणों में प्रार्थना हैं । परात्पर गुरुदेवजी के श्री चरणों में मेरा साष्टांग प्रणाम !’
– पू. डॉ. शिबनारायण सेनजी, संपादक, साप्ताहिक ‘ट्रुथ’. (मई २०२३)
इस अंक में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार संतों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक |