अंत तक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के अखंड सान्निध्य में रहनेवाले सनातन के ४६ वें (समष्टि) संत पू. (स्व.) भगवंत कुमार मेनरायजी (आयु ८५ वर्ष) !

‘मूल फरीदाबाद निवासी तथा वर्तमान में रामनाथी, गोवा स्थित सनातन के आश्रम में रहनेवाले पू. भगवंत कुमार मेनरायजी बीमार थे, तब उनकी बेटी सुश्री संगीता मेनराय ने उनके विषय में अनुभव किए एवं सीखने मिले सूत्र यहां दे रहे हैं ।

पू. भगवंत मेनरायजी

१. चिकित्सालय में सतर्कता विभाग में भर्ती होते हुए भी निरंतर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के अखंड सान्निध्य में रहने से बहुत आनंदित दिखना

‘२४.५.२०२४ को पू. पिताजी को (मेरे पिताजी [सनातन के ४६ वें [समष्टि] संत पू. भगवंत कुमार मेनराय को]) गोवा स्थित मणिपाल चिकित्सालय के सतर्कता विभाग में भर्ती किया था । २६.५.२०२४ को मुझे उनके चेहरे पर बहुत ही आनंद प्रतीत हो रहा था । मैंने जब उन्हें इस आनंद का कारण पूछा, तब उन्होंने कहा, ‘अभी-अभी प.पू. डॉक्टरजी मुझसे मिलने आए थे ।’ प्रत्यक्ष में प.पू. डॉक्टरजी रामनाथी आश्रम में ही थे । इससे मुझे लगा कि ‘तीव्र शारीरिक कष्ट होते हुए भी पू. पिताजी का मन श्री गुरुदेवजी के अखंड सान्निध्य में था ।’ पू. पिताजी को चिकित्सालय में भर्ती किया, तब से उन्हें कष्ट हो रहा है; तथापि उनके हाथ अंत तक नमस्कार मुद्रा में ही थे । अंतिम ४ दिन वे पहले से अधिक आनंद में दिखाई देते थे ।

२. छोटे बालक की भांति मासूम दिखाई देना तथा चेहरे पर स्मितहास्य होना

पिछले १५ दिनों से उनकी स्थिति छोटे बालक के समान हो गई थी । उनका हंसना छोटे मासूम बालक की भांति लग रहा था । तीव्र शारीरिक कष्ट होते हुए भी, सोते समय भी उनके चेहरे पर स्मितहास्य दिखाई देता था । तब मुझे लगता, ‘वे ईश्वर अथवा श्री गुरुदेवजी के सान्निध्य में हैं ।’ चिकित्सालय में थे तब बीच-बीच में मैं उनके हाथ-पांव, कमर दबा देती थी । तब मुझे उनका स्पर्श छोटे बालक जैसा प्रतीत होता था । उनकी त्वचा छोटे बालक की भांति कोमल हो गई थी ।

सुश्री संगीता मेनराय

३. गंभीर रूप से बीमार होते हुए भी प्रत्येक कृति उचित एवं आदर्श करने का प्रयास करनेवाले पू. पिताजी !

पू. पिताजी बहुत ही दुर्बल हो गए थे तथा उनकी शक्ति क्षीण हो गई थी । कभी-कभी वे पूरी तरह सुध में भी न रहते । वे अपना हाथ नहीं उठा पाते थे । तब भी उन्हें खांसी आने पर वे मुंह के सामने हाथ रखने का प्रयास करते थे । उन्हें पेय देने के लिए नाक से नलिका डाली हुई थी । वे उस नलिका को निकाल न दें, इसलिए चिकित्सालय में उनके हाथ हलके से बांध दिए गए थे । मेरे सो जाने पर मध्य रात्रि में ही उन्होंने मुझे जगाया एवं उनके हाथ छोडने के लिए कहा । उनके हाथ छोडने पर जब उन्हें खांसी आई, तब उन्होंने अपने हाथ मुंह के सामने ले जाने का प्रयास किया । इससे ध्यान में आया कि वे ‘संत के रूप में प्रत्येक कृति आदर्श ही कर रहे थे ।’

४. निरंतर अन्यों का विचार करना

वे बहुत ही दुर्बल हो जाने के कारण उनका बोलना अस्पष्ट हो गया था । तब भी उनके भोजन के पश्चात वे उनके साथ आए प्रत्येक साधक का नाम लेकर मुझे पूछते, ‘क्या उनका भोजन हो गया ?’ यदि मैं एवं हमारे साथ आए साधकों ने भोजन न किया हो, तो वे हमें भोजन करने के लिए कहते ।’

उनमें आज्ञापालन एवं अन्यों का विचार करना, ये गुण बहुत ही प्रबल थे । ‘संतो में साधना का बीज भीना हुआ होता है ? वे किसी भी स्थिति में उचित व्यवहार ही करते हैं’, यह मैं उपरोक्त प्रसंगों से सीख सकी ।’

– सुश्री संगीता मेनराय (मझली बेटी), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (५.६.२०२४)