औपनिवेशिकता (colonialism) से भारतीय मानसिकता की मुक्ति
लातूर शहर में पुनरुत्थान पीठ द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी तथा एक दिवसीय विद्वत परिषद में औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति अर्थात सरल भाषा में पाश्चात्य विचारों की मानसिक दासता (गुलामी) से मुक्ति के विषय पर चर्चा करेंगे । मानसिक दासता का सूत्र हमें हमारे दर्शनशास्त्र से लेकर, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, ऐसे अनेक स्तरों पर चिंतन करना आवश्यक है । यहां प्रधानता से आध्यात्मिक तथा ऐतिहासिक स्तर का चिंतन देखेंगे ।
१. मन, मानसिकता तथा मन की दासता (गुलामी)
अ. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः : मनुष्य का स्वयं का अशुद्ध मन ही उसे कर्मबंधन में अथवा जन्म- मृत्यु के चक्र के बंधन में बांधनेवाला होता है तो मनुष्य का शुद्ध मन ही उसकी मोक्षप्राप्ति का निमित्त बनता है, सनातन धर्मदर्शन यह रहस्य हमें स्पष्टता से बताता है ।
आ. मन शुद्ध अथवा अशुद्ध : हमारे दर्शन तथा हमारे उपनिषद हमें त्रिकालाबाधित सत्य बताते हैं । मनुष्य के बंधन हों अथवा उसकी मुक्ति, कारण उसका अपना अशुद्ध तथा शुद्ध मन ही होता है । यह ध्यान में रखते हुए हमें औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के विषय में इस पहलू से भी चिंतन करना होगा ।
इ. हिन्दुओं को अपना मन शुद्ध करने हेतु साधना के प्रयास करना आवश्यक : समाधानात्मक चिंतन करते समय हिन्दू मन कैसे शुद्ध बने, सूत्र का यह केंद्रबिंदु रखना आवश्यक हो जाता है । मन में यदि अशुद्धता है, तो हिन्दू व्यक्ति उसे स्वीकार करे । मन शुद्ध करने हेतु आवश्यक साधना के प्रयास करने से (आध्यात्मिक, मानसिक तथा बौद्धिक प्रयास करने से) औपिनवेशिक मानसिकता से (मानसिक दासता से) निश्चित ही हमारी मुक्ति संभव है । हिन्दू जनमानस में यह आत्मविश्वास निर्माण करना, इस दिशा में उनके प्रयास आरंभ हों, यह इस अभियान का सबसे महत्त्वपूर्ण पडाव होगा ।
२. औपनिवेशिक मानसिकता के आक्रमण का घटनाक्रम
अ. हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष : आठ सौ वर्ष इस्लामी आक्रमण ने हिन्दुओं का संहार (कत्लेआम) किया । निरंतर संघर्ष, स्त्रियों पर बलात्कार, धर्मांतरण, पलायन, निरंतर युद्ध के कारण कुल परंपरा, धर्मपरंपरा बचाना कठिन हो रहा था । साधना में निरंतरता रखना कठिन हो रहा था । एक प्रकार से शरीरिक तथा मानसिक आघात करनेवाला ये संघर्ष हिन्दुओं को निरंतर संघर्षरत रखता था; तब भी हिन्दुओं ने वीरतापूर्वक लडकर अपने धर्म की रक्षा की तथा मंदिरों को बचाया ।
आ. हिन्दू-ईसाई संघर्ष : आरंभ के सौ – सौ वर्ष व्यापारी के रूप में अंत के डेढ सौ वर्ष राज्यकर्ता के रूप में हिन्दुओं ने ब्रिटेन, पुर्तगाल, फ्रांस आदि ईसाई मिशनरी सत्ताओं से संघर्ष किया ।
धर्मांतरण तथा शिक्षा क्षेत्र के माध्यम से पाश्चात्य तथा ईसाईकरण, सत्ता के माध्यम से अंग्र्रेजी भाषा तथा ईसाई परंपरा की स्थपना करना ।
सत्ता के माध्यम से विदेशी कानून तथा संविधान, भारत पर अशुद्ध लोकतंत्र व्यवस्था थोपना ।
विज्ञान की प्रगति के माध्यम से भारतीय जनमानस में हीन भावना (न्यूनगंड) उत्पन्न करते हुए पाश्चात्य श्रेष्ठता स्थापित करना ।
‘फूट डालो और शासन करो’ (डिवाइड एंड रूल) की नीति से भारतीय जनमानस को भाषा, प्रांत, जाति आदि द्वंद्वों में फंसाकर असंगठित करना । भारतीय जनमानस पर मन तथा बुद्धि के स्तर पर औपनिवेशिक मानसिकता का यह सबसे बडा आक्रमण था । मुगलों के शासनकाल में १० प्रतिशत जनमानस दासता (गुलामी) की मानसिकता में रहा, जबकि ईसाई मिशनरियों के कार्यकाल में ३० प्रतिशत जनमानस दासता (गुलामी) की अवस्था में रहा, ऐसा हम कह सकते हैं ।
इ. हिन्दू तथा सेक्युलरिस्ट कम्युनिस्टों से (तथाकथित सुधारमतवादियों से) संघर्ष : १ सहस्र वर्ष के इस्लाम तथा ईसाई आक्रमणकर्ताओं के उपरांत स्वतंत्र भारत की सत्ता जिन हाथों में गई, वे राज्यकर्ता औपनिवेशिक मानसिकता को भारतीय मन में स्थापित करनेवाले सबसे बडे देशद्रोही सिद्ध हुए, ऐसा लगता है ।
जो काम अंग्रेज नहीं कर पाए वह स्वतंत्र भारत के औपनिवेशिक दास (गुलाम) राज्यकर्ताओं ने किया ।शिक्षा क्षेत्र, पत्रकारिता क्षेत्र, प्रशासनिक क्षेत्र, न्याय क्षेत्र, पुलिस क्षेत्र आदि सभी सरकारी क्षेत्रों के माध्यम से ईसाई मिशनरियों का एजेंडा भारतीय जनमानस में स्थापित कर दिया । इन्होंने स्वतंत्रता के उपरांत ५० वर्षाें में ५० प्रतिशत जनता में औपनिवेशिक मानसिकता की दासता (गुलामी) स्थापित कर दी । एक सहस्र वर्षाें में हमने प्रतिकार कर ६० प्रतिशत भारतीय जनमानस की रक्षा की थी; परंतु स्वतंत्रता के उपरांत हमें अपने लगनेवाले राज्यकर्ताओं से असावधान रहने के कारण हमने ५० वर्ष में ५० प्रतिशत जनसंख्या को उपनिवेशक मानसिकता की दासता (गुलामी) में ढकेल दिया था ।
परंतु यह अच्छी बात है कि संत, महत्मा तथा कुछ संगठनों द्वारा यह चक्र उलटा घुमाकर, आज अधिकांश भारतीय समाज इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहा है । सनातन परंपरा में पुनरुत्थान की प्रखर ऊर्जा है । कुछ कालावधि दासता (गुलामी) में रहने के उपरांत वह अपने स्वरूप को प्राप्त करने के लिए बडा संघर्ष करता है तथा स्वयं को पुनर्स्थापित कर विश्व को दिशा प्रदान करता है । उसी सुनहरे उत्कर्ष का काल अब समीप आ गया है, यह जानकर हमें आगे के प्रयास करना अपेक्षित है ।
३. मनुष्य जीवन प्राप्ति के ध्येय के संदर्भ में जागृत रहना
मानसिक दासता (गुलामी) चाहे औपनिवेशिक मानसिकता के रूप में हो अथवा अन्य कारणों से हो, यदि उनसे मुक्त होना चाहते हैं, तो हिन्दू जनमानस को अपने मनुष्य जीवन प्राप्त होने के पीछे क्या उद्देश्य है यह ज्ञात होना आवश्यक है । चूंकि इन उद्देश्यों की पूर्ति के ध्येय से प्रेरित होकर जब व्यक्ति के प्रयास होंगे, तब उसे मानसिक दासता (गुलामी) रूपी बंधनों से मुक्त होने के अवसर उपलब्ध होते हैं ।
अ. मनुष्य जन्म का कारण (दर्शनशास्त्रानुसार) : मनुष्य देह मनुष्य को मोक्षप्राप्ति (आनंदप्राप्ति, ईश्वरप्राप्ति) हेतु उपलब्ध होना, मनुष्य जन्म का यही मुख्य कारण है । साथ ही पूर्वजन्म के कर्माें के फल जो प्रारब्ध रूप में मनुष्य के जीवन में आए, उन्हें भोगकर समाप्त करे, मनुष्य देह की प्राप्ति का यह दूसरा कारण है ।
आ. साधना – मनुष्य जन्म के उद्देश्य प्राप्ति हेतु प्रायोगिक ध्येय (जो मोक्ष/ईश्वर/नंद को प्राप्त कराती है) : दर्शनशास्त्र ने बताया कि मनुष्य जन्म का ध्येय ज्ञात होने से ध्येयप्राप्ति संभव नहीं; अपितु ध्येयप्राप्ति हेतु जो विविध प्रायोगिक उपाय अर्थात साधना बताई गई है, उन साधनामार्गाें से किसी एक मार्ग से प्रत्यक्ष चलते हुए श्री गुरु के मार्गदर्शन में ध्येयप्राप्ति संभव है ।
इ. कलियुग में नामसाधना ही क्यों ? : कलियुग में नामजप ही आधार है । कलियुग में नामजप साधना ही शीघ्रता से मनुष्य जन्म का ध्येय प्राप्त करा सकती है । अन्य साधनामार्ग से भी मनुष्य जन्म का ध्येय तो साध्य होगा; परंतु समय अधिक लगेगा अथवा कालानुरूप प्रयास न होने के कारण इस जन्म में संभव भी न हो, ऐसा हो सकता है ।
सभी बंधनों से मुक्त होने का ध्येय रखनेवाले धर्मपरायण तथा साधनारत हिन्दू का किसी औपनिवेशिक मानसिकता का दास (गुलाम) होना क्या संभव है ?
४. औपनिवेशिक मानसिकता तथा दर्शनशास्त्रीय विश्लेषण
अ. आसुरी संपदा से प्रभावित मानसिक दासता का कारण : मनुष्य का मन इंद्रियों का दास बनता है । इंद्रियों की दासता हेतु निमित्त होते हैं, उसके अपने अशुद्ध मन के स्वभाव । अशुद्ध मन के स्वभावदोष, षड्रिपु अथवा बुद्धि का अहंकार जैसी आसुरी संपदा से वह प्रभावित होता है । ऐसी परिस्थिति में असंतुष्ट व्यक्ति को अपने पास जो है, वह पर्याप्त नहीं लगता तथा अन्यों का अपनाकर वह गौरवान्वित अनुभव करता है । यह बहुत बडी समस्या है ।
चाहे भौतिक कारणों से मन की दासता हो अथवा आध्यात्मिक कारणों से मानसिक दासता; दोष, अहंकार आदि के कारण ही होती है, यह जड हमें ध्यान में लेना आवश्यक है ।
आ. मन की शुद्धि के साथ अन्य कारणों का समाधान करना आवश्यक : चाहे मोक्षप्राप्ति हो अथवा औपनिवेशिक मानसिकता से र्थात मानसिक बंधनों से (गुलामी से) मुक्त होना हो, व्यक्ति के मन की शुद्धि होना अनिवार्य है । मन की शुद्धि अर्थात मन के दोष तथा बुद्धि का अहंकार दूर करना आवश्यक है । सनातन संस्था के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेव डॉ. जयंत आठवलेजी ने ‘गुरुकृपायोगा’नुसार जो साधनामार्ग बताया है, उसमें स्वभावदोष-निर्मूलन तथा अहं-निर्मूलन, साथ ही गुणसंवर्धन की प्रक्रिया बताई है, जो मन तथा चित्त शुद्धि हेतु अत्यंत उपयोगी है ।
इसी के साथ जो बाह्य कारण इस औपनिवेशिक मानसिक दासता (गुलामी) हेतु निमित्त बनते हैं, विविध स्तरानुसार उनका भी अध्ययनपूर्ण समाधान करना आवश्यक होता है ।
इ. औपनिवेशिक मानसिकता नास्तिक चार्वाक दर्शन का प्रतिनिधित्व : औपनिवेशिक विचारधारा जिसे अंग्रेजों की (पाश्चात्यों की) मानसिक दासता (गुलामी) भी कहते हैं, यह ब्रिटिशों की षड्यंत्रपूर्ण देन है, हम यही मानते हैं । बाह्यतः ये ठीक भी हैं; परंतु भारतीय दर्शनानुसार हमें उसका विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है ।
पाश्चात्य औपनिवेशिक मानसिकता का गुणात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह कलोनियल विचारधारा वर्तमान में नास्तिक चार्वाक विचारधारा की अभिव्यक्ति है, यह स्पष्ट हो जाएगा ।
इस कारण केवल औपनिवेशिक मानसिकता से भारतीय मानसिकता को मुक्त करना, यह ब्रिटिश षड्यंत्र से मुक्त करने जितना सीमित नहीं है; अपितु गहराई से देखें तो ध्यान में आता है कि यह प्रक्रिया नास्तिक चार्वाक दर्शन का आस्तिक सनातन वैदिक दर्शन पर हो रहा आक्रमण निरस्त करने जितना गहन भी है ।
ई. संक्रमण काल : क्या ‘कलोनियल माइंडसेट’ अथवा ‘डिकलोनाइजेशन’, ऐसे शब्दों का उच्चारण हमारे कलोनियल माइंडसेट के ही उदाहरण तो नहीं है न ? हमें अपनेआप से ऐसा प्रश्न पूछना होगा । अभी संक्रमण काल है तो चाहे औपनिवेशिक मानसिकता कहें अथवा कलोनियल माइंडसेट कहें, ठीक है; परंतु दूरदर्शी इन्हें चार्वाक विचारधारा (अर्थात पाश्चात्य विचारधारा अथवा कलोनियल माइंडसेट) कहेंगे । एक प्रकार से यह भी कलोनियल माइंडसेट से मुक्ति ही होगी ।
५. औपनिवेशिक मानसिकता के लिए ब्रिटिशों के षड्यंत्र जैसे बाह्य कारण के साथ आंतरिक कारण कौनसे हैं ?
अ. ब्रिटिशों के षड्यंत्र के कारण पश्चिमी विचारों की दासता : यह औपनिवेशिक मानसिकता का एक प्रबल बाह्य कारण है; परंतु क्या समस्या का यही एक कारण है ? इसके पूर्व हमने देखा कि इस्लाम, ईसाई तथा स्वतंत्र भारत के राज्यकर्ता (जो पाश्चात्य मानसिकता के दास थे) आदि द्वारा यह कैसे स्थापित किया गया । क्या यह केवल पश्चिमी (अंग्रेजी, यूरोपीय अथवा विदेशी) मानसिकता से मुक्ति का अभियान है ?
आ. संत, गुरु तथा अवतारी पुरुषों का मार्गदर्शन लेना आवश्यक : आत्मबल के अभाव में व्यक्ति का मनोबल मानसिक दासता में फंस जाता है । उसके दोष तथा षड्रिपु के साथ अहंकार ही प्रमुख कारण होते हैं ।
केवल औपनिवेशिक मानसिकता से नहीं; अपितु विश्व के आरंभ से समय पर विविध कारणों से मानसिक दासता निर्माण होती गई । आवश्यकतानुसार संत, महात्मा तथा अवतार हिन्दू मानसिकता को दासता से मुक्ति का मार्ग बताकर आध्यात्मिक उन्नति की राह भी दिखाकर गए हैं ।
आज भी हमें ऐसे समष्टि संत, गुरु तथा अवतारी पुरुषों का मार्गदर्शन लेना होगा, जो हिन्दू जनमानस को दासता से मुक्त कर अपने गौरवान्वित स्वराज्य को प्राप्त करवाएंगे । ऐसे महात्मा एवं अवतारी पुरुष जो राष्ट्र एवं धर्म के संदर्भ में कार्य कर रहे हैं, उनसे मार्गदर्शन लेते रहना होगा ।
इ. मन की शुद्धि त्रिगुणानुरूप कैसे संभव ? : भारतीय दर्शन मन की वृत्ति अथवा स्वभाव को तीन प्रमुख आध्यात्मिक गुणों के आधार पर विभाजित करता है । सत्त्व, रज तथा तम, इन तीन गुणों से मनुष्य के मन तथा स्वभाव प्रभावित रहते हैं ।
सत्वगुण अच्छाई का प्रतीक है तथा तमोगुण बुराई का प्रतीक है । रजोगुण स्वार्थी, अर्थार्थी, प्रसिद्धिलोलुप, स्वयं को महत्त्व मिले, बडप्पन मिले, ऐसे सत्त्व तथा तमोगुण के मध्यवाली, दोनों ओर झुकनेवाली चंचल मनोवृत्ति का द्योतक है । मन की शुद्धि का अर्थ है साधना कर प्रथम सत्त्वगुणी बनें तथा अंततः गुणातीत होकर मनुष्यजन्म का ध्येय प्राप्त करें ।
समय-समय पर जब हिन्दुओं की साधना कम हुई, हिन्दू धर्मज्ञान तथा धर्माचरण से दूर गया, हिन्दू के स्वयं को सत्त्वगुणी बनाने के प्रयास कम हुए तथा स्वार्थ, सत्ता, अिधकार, अहंकार एवं धनसंपत्ति का प्रभाव बढा, तो हिन्दुओं की मनोवृत्ति तमप्रधान होती गई । तब-तब हिन्दू मानसिक दासता (दोष अहंकार) में फंसता गया ।
ऐसे संकट के समय में कोई महात्मा, महापुरुष तथा अवतार भूतल पर जन्म लेते हैं । वे समाज को साधना का मार्ग दिखाकर हिन्दुओं को सत्त्वगुणी बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । गुरुपरंपरा, संत तथा अवतारों के दिखाए मार्ग पर चलकर धीरे-धीरे हिन्दू जनमानस प्रथम जागा तथा उसने स्वधर्म, स्वदेश, स्वराज्य, स्वपरंपरा, स्वसंस्कृति आदि की पुनर्स्थापना कर स्वयं के सत्त्व को जागृत किया । आज हमें इसी प्रक्रिया को पुनः जागृत करने की आवश्यकता है ।
इसी के साथ बाह्य कारण के संदर्भ में भी अध्ययनपूर्ण समाधान निकालकर उचित पद्धति से, चाहे पाठ्यक्रम के माध्यम से, अन्य माध्यम से धर्मशिक्षा द्वारा, गुरुकुल आदि शिक्षा क्षेत्र द्वारा तथा साधना के संदर्भ में मार्गदर्शन आदि के माध्यम से इन कारणों का उच्चाटन करना आवश्यक होगा ।
६. औपनिवेशिक मानसिकता में फंसे हिन्दू स्वयं को मुक्त करने में असमर्थ क्यों हैं ?
अ. मानसिक दास है यही ज्ञात न होना : अध्यात्मशास्त्रानुसार आज हिन्दू मानस पर अविद्या अर्थात माया का इतना आवरण (दर्पण पर कालिख है) छा गया है कि स्वयं की पहचान वैदिक हिन्दू धर्मपरंपरा बतानेवाले हिन्दू आज अपने वैदिक धर्म से दूर होकर नास्तिक चार्वाक के विचारों का अनुयायी बन गया है; परंतु समस्या यही है कि वह इस सत्य को समझ नहीं पा रहा है । यह भगवान की माया ही है ।
आ. आसक्ति, भोग, कामना आदि में लिप्त होना समस्या है : साधना तथा धर्मशिक्षा के अभाव में अपने स्वरूप, स्वभाव, स्वधर्म, स्वराज्य आदि को हिन्दू भूल गया है । वह अज्ञानवश इच्छा (स्वेच्छा), अपेक्षा, आकांक्षा, आसक्ति, भोग, कामना, वासना आदि में लिप्त होकर चार्वाकानुयायी बन गया है ।
हमें यह एक ही मनुष्य जीवन मिला है, खाओ, पियो मौज करो, सुखी बनो, उपभोग लो, मेरा परिवार, मेरा कैरियर, मेरी नौकरी, मेरा व्यवसाय, मेरा घर, मेरी गाडी, इन सभी विचाराें में फंसने के कारण धर्म तथा साधना से दूरी बनाकर हिन्दू चार्वाक का अनुयायी बनकर रह गया है । चार्वाक के इन सभी विचारों का खंडन कर दोष तथा अहंकार से मुक्त होकर, हमें भारतीय दर्शन परांपरा से क्रिया को जोडना अर्थात साधना करना अत्यंत आवश्यक है ।
७. औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के उपाय
अ. परिपूर्ण उपाय : वृक्ष के संवर्धन हेतु जैसे उसकी जड को पानी, खाद आदि से सींचना आवश्यक होता है; साथ ही उसकी बढी हुई डालियों को समय-समय पर काटना, सडी अथवा सूखी हुई डाली हटानी पडती है ।
वैसे ही किसी भी समस्या के समाधान हेतु एक समाधान उस समस्या की जड को सींचनेवाला हो, तथा दूसरा समाधान उसके तात्कालिक बाह्य कारणों को दूर करनेवाला हो, तो दोनों समाधान मिलकर परिपूर्ण समाधान होते हैं ।
आ. धर्मशिक्षा प्रदान करना : औपनिवेशिक मानसिकता में धर्म-अशिक्षित तथा साधना न करनेवाले व्यक्ति का मन चार्वाक विचारधारा का दास बन जाना, यही समस्या की जड है । इस समस्या का एक ही समाधान है – धर्मशिक्षा की व्यवस्था पहली कक्षा के पाठ्यक्रम से आरंभ करें । घर में परिवार के सदस्यों द्वारा तथा आसपास के मंदिरों में तथा कुल पुरोहित आदि द्वारा भी समय-समय पर धर्मशिक्षा देने की सुविधा उपलब्ध हो, समाज तथा राजनीति की ऐसी व्यवस्था निर्माण करना आवश्यक है ।
इ. साधना : बचपन से ही बच्चा या आगे व्यक्ति साधना आरंभ करे, मन तथा चित्त की शुद्धि हेतु प्रयास करे, गुरुपरंपरा से जुडकर श्री गुरु के मार्गदर्शन में साधना करे, यह चाहे गुरुकुल व्यवस्था से अथवा जो गुरुपरंपरा कार्यरत है, उनके माध्यम से तथा समाज में इस संदर्भ में जागृति कर अपने-अपने साधनामार्ग पर चलने हेतु प्रोत्साहित करे आदि अनेक समाधान हमें निकालने पडेंगे । साधना हमारा मनोबल तथा आत्मबल बढाती है ।
ई. मनोबल एवं आत्मबल की आवश्यकता : केवल बाह्य समाज से संघर्ष हेतु मनोबल एवं आत्मबल की आवश्यकता होती है; किंतु अपने भीतर की अशुद्धि तथा अधार्मिक संस्कारों के विरुद्ध लडने हेतु इन ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा औपनिवेशिक मानसिकता से अर्थात मन की अविद्या अर्थात माया की दासता से मुक्त होकर आत्मज्ञानी होना संभव होता है ।
उ. धर्माधारित शिक्षा व्यवस्था : शिक्षा व्यवस्था धर्माधारित हो, समाज धर्मपालन तथा धर्माचरण कर सके, नित्य ऐसे मार्गदर्शक की व्यवस्था निर्माण हो । राष्ट्र, प्रशासन, पुलिस तथा न्याय व्यवस्था धर्मसम्मत धर्मसापेक्ष स्तर पर कार्यरत रहने से समाज को मानसिक दासता से शीघ्रता से बाहर लाना संभव होगा ।
धर्मशिक्षित तथा साधक अथवा आध्यात्मिक स्तर पर उन्नत व्यक्ति की प्रतिष्ठा जनमानस में निर्माण हो तथा समाज भी उनका अनुसरण करे, ऐसी समाजव्यवस्था भी निर्माण करनी होगी ।
ऊ. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की आवश्यकता : मन तथा चित्त की शुद्धि हेतु सनातन संस्था के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने जो स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन प्रक्रिया, साथ ही गुणसंवर्धन प्रक्रिया बताई है, वह पाठशाला में ही नहीं, अपितु घर-घर में सिखाने की व्यवस्था करें, तो मन के दोष तथा अहंकार अल्प होने से, चाहे औपनिवेशिक मानसिकता हो अथवा अन्य कोई मानसिक दासता हो, इन बंधनों की दासता से मुक्त होना सहज संभव हो पाएगा ।
संकलनकर्ता : सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति